गुरु प्यारी साध संगत जी यह साखी सतगुरु के समय की है किसी सज्जन अभ्यासी ने सतगुरु से पूछा था कि महाराज जी जैसे की हम सब जानते हैं कि मालिक के बहुत सारे नाम हैं अलग-अलग धर्मों के लोग उसे प्रेम प्यार से अपने दिए हुए नामों से पुकारते हैं उसे याद करते हैं कोई उसे अल्लाह कहता है कोई उसे वाहेगुरु कोई राम और कोई उसे राधास्वामी नाम से याद करता है तो हमारे मन में यह प्रश्न उठ रहा था कि उसका अपना भी कोई नाम होगा जो उसका अपना होगा जो किसी ने दिया ना हो हमारे द्वारा दिया गया ना हो ,वही नाम धुन भी होगा ,कृपया हमें बताएं, उस समय जो अभ्यासी होते थे वह महाराज जी से अपनी कुछ अंदर की बातें करते थे जिन जिन को जो भी पूछना होता था वह शाम के समय जब सतगुरु संगत से बात करते वह पूछ लेते थे इसका जवाब सतगुरु ने ऐसे दिया था कि हम सब ने उसे अनेकों नामों से याद किया है लेकिन उसका एक ही नाम है जो उसका अपना है जो किसी ने दिया हुआ नहीं है वह बात अलग है कि हम उसे अपने दिए हुए नामों से याद करते हैं
यह भी ठीक बात है क्योंकि जब तक हम उसके सच्चे नाम को नहीं जान जाते तब तक हम ऐसे ही उसे अपने दिए हुए नामों से याद करते हैं जैसे मां अपने बच्चे को अलग-अलग नामों से पुकारती है कभी उसे लल्ला कहती है कभी कुछ कहती है कभी राजा कहती है वह प्यार में आकर उसे अलग-अलग नामों से पुकारती है लेकिन उसके अलग-अलग नाम लेने से वह तो अलग नहीं बन जाता वह तो एक ही है इसलिए हम भी उस कुल मालिक को अलग-अलग नामों से पुकारते हैं और पुकारते आए हैं क्योंकि हमें उसके असल नाम की तब तक कोई खबर नहीं होती लेकिन जैसे-जैसे हम इस मार्ग पर आगे बढ़ते हैं वैसे वैसे हमें पता चलना शुरू हो जाता है कि यह मार्ग क्या है नाम धुन क्या है मालिक का असल नाम क्या है ? उसका नाम एक ही है जो दिया हुआ नहीं है उसका अपना ही है गुरु नानक साहब अपनी वाणी में हमें समझाते हैं उपदेश देते हैं एक ओंकार सतनाम यही उसका नाम है जो उसका अपना है क्योंकि जब सब शब्द खो जाते हैं मन खाली हो जाता है तब भी एक ओंकार की ध्वनि गूंजती रहती है एक ओंकार की धुन सुनाई पढ़ती रहती है क्योंकि यह हमारी बनाई हुई धुन नहीं है और जितनी भी ध्वनियां है वह हम लोगों द्वारा पैदा की जाती है वह द्वैत से बनती है और जो द्वैत से बना होता है वह उसका नाम नहीं हो सकता , यह उसका नाम है उसके होने का ढंग एक ओंकार है उसके होने का ढंग ओंकार है वही सत्य है वह किसी आदमी का दिया हुआ नाम नहीं ,इसलिए इसका कोई अर्थ नहीं होता यह ध्वनि बहुत अनूठी है इसका कोई स्रोत नहीं है इसे कोई पैदा नहीं करता ,यह उसके होने का एक ढंग है इसे ही नाम धुन कहते हैं उदाहरण के तौर पर जैसे कि अगर हम नदी के पास बैठ जाए तो हमें कल कल का नाद सुनाई देगा और वह नाद पानी और पत्थर के टकराने से पैदा होता है और हवा का झरोखा जब वृक्ष से गुजरता है तो सरसराहट होती है क्योंकि हवा वृक्ष से टकराई इसलिए ध्वनि पैदा हुई लेकिन यह जो जितनी भी ध्वनियां है यह सब दो चीजों के टकराने से पैदा होती हैं और जितनी भी ध्वनियां द्वैत से पैदा होती हैं वे उसके नाम नहीं है उसका नाम तो वही है जब सभी शब्द खो जाते है लेकिन फिर भी एक धुन गूंजती रहती है जो कि उसका नाम है इसलिए विज्ञान भी यही कहता है कि अगर हम अस्तित्व को तोड़ते चले जाएं तो आखिर में हमें विद्युत कण मिलेगा गहराई से विश्लेषण करें अंत में हमें विद्युतीकरण इलेक्ट्रिसिटी मिलेगी इसलिए विज्ञान की अंतिम खोज इलेक्ट्रॉन है यहां पर विज्ञान का कहना है की ध्वनि विद्युत का ही एक रूप है और हमारे संत महात्मा कहते हैं की विद्युत ध्वनि का एक रूप है यह भेद छोटा सा है लेकिन बात एक ही है बस कहने का ढंग ही अलग अलग है क्योंकि विज्ञान ने अस्तित्व को तोड़ तोड़ कर विद्युत को पाया और हमारे संत महात्माओं ने जोड़ जोड़ कर उस अखंड को पाया और उस अखंड में एक ध्वनि पाई इसलिए जब भी कोई व्यक्ति समाधिस्ट हो जाता है ध्यान में लीन हो जाता है जैसे-जैसे वह शांत होने लगता है तो उसे ओंकार की ध्वनि सुनाई देने लगती है जब उसके साथ यह पहली बार होता है तो वह चकित हो जाता है कि मैं कुछ कर नहीं रहा यह ध्वनि अपने आप से हो रही है यह अनूठी है यह किसी द्वारा पैदा नहीं की जा रही यह अपने आप हो रही है यह मालिक का नाम है यह अनहद नाद है जो दिन-रात हमारे अंदर चल रहा है लेकिन हमें उसकी कोई खबर नहीं और जैसे-जैसे हम शांत होते जाते हैं वैसे वैसे हमें धुन सुनाई देने लगती है और हम उसे बहुत सारे नामों से याद करते हैं कोई राम राम कहने लग जाता है कोई अपने धर्म के अनुसार अलग अलग नाम से उसे याद करने लग जाता है लेकिन जितने भी नाम है यह सब अंत में जाकर उसके एक नाम ओंकार में समा जाते हैं इसलिए बहुत सारे अभियासियो ने यह पाया की अंत में सभी नाम ओंकार में परिवर्तित हो जाते हैं क्योंकि वह उसका एकमात्र नाम है और उसके नाम की धुन बहुत ही अनूठी है जिसमें उस मालिक के नाम का रस है और हम उसे जिन नामों से याद करते हैं वह नाम उस तक पहुंचने के लिए इसलिए सहायक होते हैं क्योंकि उनमें भी ओमकार के नाम की ध्वनि मौजूद रहती है और जैसे-जैसे हम जाप करते हैं जैसे जैसे हमारा जाप हमारा अभ्यास पक्का हो जाता है तब उसमें ओंकार की ध्वनि गूंजती है और धीरे-धीरे हम शांत हो जाते हैं और वह नाम खुद ही चलने लग पड़ता है वह तो पहले से ही चल रहा होता है लेकिन हमें सुनाई नहीं पड़ता क्योंकि हमारे मन में विचारों का शोर इतना है दुनिया का शोर इतना है कि वह ओंकार की ध्वनि हमें सुनाई ही नहीं पड़ती जब हमारा मन खाली होता है हमारे सारे विचार खत्म हो जाते हैं मन बिल्कुल शून्य हो जाता है तब ओंकार की ध्वनि गूंजती है हमें उसे उचारने की जरूरत नहीं है वह खुद ही गूंजती है और हम हैरान रह जाते हैं कि यह ध्वनि कहां से आ रही है और हम अचानक यह पाते हैं कि यह तो सभी तरफ गूंज रही है कण-कण में इसकी मौजूदगी है इसका रस है इसलिए एकमात्र एक ओंकार ही उसका एक नाम है जैसे कि सत्संग में भी समझाया जाता है कि वह लिखने पढ़ने में नहीं आता वह बोलने में भी नहीं आता क्योंकि वह मालिक के होने का ढंग है इसलिए इसका कोई अर्थ भी नहीं होता और हमारे जितने भी शब्द हैं उन सभी का कोई ना कोई अर्थ निकलता है इसलिए तो हम उसे शब्द का रूप दे देते हैं लेकिन यह जो मालिक का नाम है इसे लिखा नहीं जा सकता ,कहा नहीं जा सकता ,इसलिए तो हमारे संत महात्मा कहते हैं कि यह लिखने पढ़ने में नहीं आता भाई इसे केवल सुना जा सकता है इसमें रमा जा सकता है । इसलिए सतगुरु ने कहा था की नाम की कमाई करो शब्द की कमाई करो बाकी सब जो भी तुम्हारे दुख दर्द हैं वह मुझे दे दो और जो मेरे पास उस नाम का रस है वह मैं आपको दे दूंगा कितनी बड़ी बात सतगुरु ने कही थी लेकिन हम फिर भी उनकी बातों पर अमल नहीं करते उनके कहे गए वचनों पर हम अमल नहीं करते इस समय हमें भजन सिमरन में ज्यादा से ज्यादा वक्त देना है हमें ठान लेना है कि हमें इतनी देर तक भजन सिमरन पर बैठना है तो बैठना है हमें मन के पीछे नहीं लगना सतगुरु कहते थे कि मन रोए या पीटे हमें इसकी बात नहीं सुननी हमने ठान लेना है कि हमें इस समय भजन सिमरन पर बैठना है तो बस बैठना है बाकी सब काम उस पर छोड़ देने हैं बाकी सब मालिक देखेगा सतगुरु कहते हैं कि मालिक कहता है कि तुम मेरा काम करो मैं आपका काम करूंगा इसलिए जब हम भजन सिमरन करते हैं मालिक हमारा परमार्थ भी सवार देता है और स्वार्थ भी सवार देता है ।
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