गुरु प्यारी साध संगत जी यह बात 1937 के आसपास की है जब महाराज जी हुआ करते थे जैसे कि हम सब जानते हैं कि उस समय महाराज जी संगत के बीच बैठकर बातें करते थे उस समय ऐसा नहीं होता था कि गुरु को देखते ही उनके पैरों में पढ़ना संगत शुरू कर दें उनके कपड़ों को हाथ लगाना संगत शुरू कर दें, उस समय ऐसा नहीं होता था उस समय महाराज जी संगत के बीच बैठे होते थे और संगत से बातें करते थे संगत का हाल पूछते थे उनके प्रश्नों के जवाब उन्हें देते थे लेकिन अगर आज के समय की बात की जाए तो मुश्किल से ही ऐसा हो पाएगा की सतगुरु हमारे बीच बैठे हो और हम उनको माथा ना डेके, उनको हाथ ना लगाएं बिना रह सकें जैसे कि फरमाया जाता है कि रूहानियत कपड़ों में नहीं, रूहानियत पीछे भागने से नहीं बल्कि खुद पहचान करने से खुद नाम की कमाई करने से हासिल होती है तो साध संगत जी उस समय महाराज जी बातें कर रहे थे
और महाराज जी के मुख पर बहुत तेज नूर रहता था जिससे सभी संगत बहुत प्रभावित होती थी जो भी उनके आसपास होते थे उन पर उसका गहरा असर पड़ता था यह बातें सुनने को भी मिली है क्योंकि जो पूरा संत सतगुरु होता है उसका तेज इतना होता है जिससे करोड़ों लोगों का उद्धार हो सकता है और जैसे कि प्रेम की पहेली में भी बताया गया है की सतगुरु के मुख पर कितना नूर रहता था जिससे बहुत संगत प्रभावित होती थी तो ऐसे ही उस समय भी एक सज्जन अभ्यासी ने ऐसे ही सतगुरु से कह दिया था कि है महाराज आप के मुख्य पर इतना नूर कैसे हैं आप कोई साधारण व्यक्ति तो नहीं है यह तो मैं जानता हूं आप खुद कुल मालिक का रूप है यह प्रश्न मुझे पूछना तो नहीं चाहिए लेकिन सतगुरु ऐसे ही अंदर जिज्ञासा हो गई कि क्यों ना पूछ लिया जाए तो इसलिए सतगुरु पूछ लिया तो जब यह प्रशन उस भाई ने महाराज जी के सामने रखा था महाराज जी पहले तो कुछ नहीं बोले उसके बाद महाराज जी ने कहा कि यह नूर हम सभी के अंदर है यह नूर उस कुल मालिक का है यह सचखंड से आता है यह कभी कम नहीं होता कभी ज्यादा नहीं होता यह बिन बाती बिन तेल है यह ऐसा प्रकाश है जो कभी बुझ नहीं सकता यह ऐसा प्रकाश है जिसे तेल की जरूरत नहीं यह हमेशा से था , है और रहेगा, यह हम सभी के अंदर हैं बस कमी सिर्फ और सिर्फ पहचान की है जिसने भजन सिमरन कर कर अंदर जाकर उस मालिक से मिलाप कर लिया उसने पहचान कर ली फिर वह यह नहीं पूछता की ये क्यों है ? कहां से आता है ? यह नूर उस कुल मालिक का है यह उसके दरबार से आता है इसीलिए तो सत्संग में भी कहता हूं कि जितना हो सके भजन सिमरन के लिए समय निकालो, उसके दरबार में हाजिरी लगे तो यह नूर अपने आप दिखाई देने लगेगा ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ संत महात्माओं में होता है ऐसा बिल्कुल भी नहीं है मालिक की जोत हम सभी में एक समान है किसी में भी कम नहीं है किसी में भी ज्यादा नहीं है यह जो दौलत है मालिक ने सभी को एक जैसी दी है लेकिन जो पहचान कर लेता है जो उस मालिक से जुड़ जाता है उस पर यह नूर अपने आप दिखाई पड़ता है कहने की कोई जरूरत नहीं है यह नूर उसकी कृपा से ही आता है हम उसके आगे अरदास कर सकते हैं विनती कर सकते हैं लेकिन आगे उसकी मर्जी है जिसको चाहे अपने से मिला लेता है वह उसकी मर्जी है उसके द्वार हम सभी के लिए एक समान खुले हैं लेकिन वहां तक जाना यह उसकी मौज है, जब हमें नामदान की बख्शीश हो जाती है तब हमें समझ जाना चाहिए कि कुल मालिक हमें अपने से मिलाना चाहता है हमारा उद्धार करना चाहता है इसलिए वह नामदान की बक्शीश हमें कर देता है हमें तभी समझ जाना चाहिए कि उसका संदेश हमें आ गया है कि हमें भजन सिमरन करना है और इस माया से ऊपर उठकर उससे मिलाप करना है यह माया भी उसकी ही है उसी ने ही बनाई है इसको हम दोष नहीं दे सकते कि यह क्यों बनी ! कैसे बनी ! यह भी उसी ने बनाई है और हम इसमें बुरी तरह से फंस गए हैं हम खुद फंसे हैं वह हमें बहुत बार मौका दे चुका है क्योंकि वह हमसे बहुत प्यार करता है, हमें नहीं पता हम यहां पर कितनी बार जन्म ले चुके हैं कितनी बार हमने मनुष्य जन्म व्यर्थ गवाया है लेकिन जब नामदान की बख्शीश हो जाए तब हमें केवल और केवल भजन सिमरन पर जोर देना चाहिए चाहे कितने भी काम क्यों ना हो समय निकालकर भजन सिमरन करना चाहिए साध संगत जी यह वचन उस समय महाराज जी ने संगत को कहे थे साध संगत जी इसी के साथ हम आपसे इजाजत लेते हैं आगे मिलेंगे एक नई साथी के साथ, अगर आप साखियां, सत्संग और सवाल जवाब पढ़ना पसंद करते है तो आप नीचे E-Mail डालकर इस Website को Subscribe कर लीजिए, ताकि हर नई साखियां, सत्संग और सवाल जवाब की Notification आप तक पहुंच सके ।
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