Guru Nanak Sakhi । श्री गुरु नानक देव जी ने कहा था जो "जपजी साहिब" का पाठ करेगा !

 

साध संगत जी आज की साखी सतगुरु नानक देव जी और भाई लहना जी की है जब सतगुरु ने भाई लहना जी को गुरु गद्दी सौंपी थी तब उनके बीच क्या वार्तालाप हुई सतगुरु ने क्या वचन किए आइए बड़े ही प्रेम और प्यार के साथ आज का यह प्रसंग सरवन करते हैं ।

साध संगत जी जब सतगुरु नानक साहिब जी की माता जी ने यह खबर सुनी की सतगुरु ने अपने सपुत्रों बाबा श्री चंद जी और लख्मी दास जी को छोड़कर भाई लहना जी को गुरु गद्दी का वारिस बनाने लगे हैं तो यह सुनकर माताजी को बहुत दुख हुआ तो वह चिंतित होकर परेशान होकर धर्मशाला में गए जहां पर सतगुरु बैठे थे वहां पर दोनों सपुत्र सतगुरु के पास बैठे थे भाई लहना जी सतगुरु के चरणों को दबा रहे थे और भी बहुत सिख सतगुरु के इर्द-गिर्द बैठे हुए थे तो माता जी वहां पर चल कर आ गए तो जब वह वहां पर पहुंच गए तो गुरुजी के पास बैठकर उन्होंने कहा कि हे श्रीचंद के पिता जी आपने क्यों उल्टी बात मन में धारण कर ली है वह रीति करें जो जग में परम शोभती है और कहने लगे कि आपके पुत्र हर तरह से लायक हैं लेकिन आप उनसे प्यार नहीं करते इस संसार में जिनकी वजह से वंश आगे बढ़ता है उनकी वजह से ही हर जगह श्रेष्ठ यस होता है जिनकी वजह से नाम प्रगट होता है और मनुष्य की कुल जग में शोभा होती है लेकीन आपने गुणवान पुत्रों को त्याग दिया है और अपने सेवक से आप बहुत प्यार करते हो आप अपनी निजी शक्ति अपने पुत्रों को छोड़कर उस सेवक को देना चाहते हो तो इस तरह आप जग में अपने पुत्रों से बढ़कर अपने सेवक को गद्दी दोगे, पहले भी इस संसार में बहुत अवतार हुए हैं लेकिन किसी ने भी ऐसी मत धारण नहीं की है की पुत्रों से भी बढ़कर दास हो जाएगा और आप अपनी गुरु गद्दी ही उसको दे दोगे लेकिन यह बात अच्छी नहीं आप अपने मन में विचार कर लें अगर आपके हृदय में यह चाह है तो आप की औलाद सदा ही चित में तपेगी, नीति के विरुद्ध हुआ कार्य देखकर वह कभी भी सुख नहीं पाएंगे गुरु प्यारी साध संगत जी सतगुरु नानक ने सिखों को उपदेश देने के लिए ही इस तरह का कार्य किया था क्योंकि बाबा श्री चंद जी पहले से ही भक्ति में लीन थे उन्होंने पहले ही सतगुरु नानक को कह दिया था कि मुझे गुरु गद्दी नहीं चाहिए मुझे सिर्फ भक्ति से प्यार है तो सतगुरु ने उनके ऐसे वचन सुनकर बहुत समय तक चुप धारण कर ली तो उस समय एक बिल्ली ने एक चूही को आधा खाकर सतगुरु के आगे फेंक दिया तो सिखों ने बिल्ली को डराया और वह डर कर भाग गई लेकिन वह चूही वहीं पर ही सतगुरु के आगे पड़ी रही तो सतगुरु ने उस चूही के माध्यम से माताजी को समझाने की व्योत बनाई तो उन्होंने अपने सुपुत्र बाबा श्री चंद जी को कहा कि इस जगह एक मरी हुई चूड़ी पड़ी हुई है यह अच्छी बात नहीं, आप उसको उठाकर दरवाजे के बाहर फेंक आए तो ये सुनकर बाबा श्री चंद जी ने कहा कि मैंने मदारी बहुत तरह के देखे हैं जो हलकी बिल्ली बना देते हैं खंभों का कबूतर बनाकर उड़ा देते हैं आप उनके जैसी रीति कर रहे हो और आपने जो मन में कपट धारण किया हुआ है उसको मैं अच्छी तरह से जानता हूं, सूर कुत्ते साथ लेकर आप बाहर फिरते रहे फिर आपने एक मुर्दा दिखाया और फिर उस मुर्दे को कड़ा प्रसाद में तब्दील कर दिया और फिर ऐसे बहुत सारे कपट हुए हैं मुझे इनको देखने की कोई जरूरत नहीं, मैं इस मरी हुई चूही को नहीं उठाऊंगा तो इतना कहकर वह चुप हो गए और फिर सतगुरु नानक ने अपने दूसरे पुत्र बाबा लख्मी दास जी को कहा कि पुत्र सुनो यहां पर यह चूही पढ़ी हुई है तो यह अच्छी नहीं लगती इसको उठा कर बाहर रख आओ तो यह सुनकर बाबा लख्मी दास जी बोले कि मेरे लिए यह उचित बात नहीं है मैं मरी हुई चूही को हाथ नहीं लगाऊंगा अगर आप कहते तो हो तो मैं किसी और को कह कर इसे यहां से उठवा देता हूं तो इतना कहकर वह घमंड में आकर चुप रहे तो उसके बाद सतगुरु ने भाई लहना की तरफ देखा और कहां की हे प्यारे करतार आप उठे और इस चूही को उठाकर बाहर फेंक आए गुरु प्यारी साध संगत जी ये सतगुरु ने आप ही कोई खेल रचा था उन्होंने कोई बहाना बनाया था और ऐसी स्थिति बनाई थी और सतगुरु अंगद देव जी को गुरु गद्दी बक्श करनी थी इसलिए गुरु जी ने ही यह सारी व्यवस्था आप बनाई और बाबा श्री चंद जी और बाबा लक्ष्मी दास जी के मन को अपने हिसाब से मोड़ लिया तो जब सतगुरु ने भाई लहना जी को चूही को उठाकर बाहर फेंकने के लिए कहा था तो भाई लहना जी तुरंत उठे और उसको उठाकर दूर कहीं जाकर उसको फेंक आए उस समय सतगुरु माताजी से बोले कि देखो अपने मन में विचार करो अपने पुत्रों को पराए पुत्र जानो यह कभी भी आज्ञा नहीं मानते हैं लेकिन भाई लहना जी सदा ही आज्ञा में रहते हैं यहां पर किसी के हाथ में कुछ भी नहीं है सब कुछ करतार के अधीन है जिस पर उसकी कृपा दृष्टि होती है वही सब कुछ हासिल करता है इस धरती पर जहां पर नीचा स्थान होता है पानी उसी तरफ जाता है और जाकर बड़ी मात्रा में टिक जाता है और यहां पर बड़ा ऊंचा स्थान होता है वहां पर एक बूंद भी नहीं ठहरती तो गुरु जी के वचन सुनकर और अपनी आंखों से देख कर माता जी अपने घर चले गए तो उसके बाद कुछ और दिन बीते और सतगुरु ने परखने की एक और विधि बनाई साध संगत जी संसार सागर को तारने के लिए जहाज रूपी गुरुजी अपनी मौज में सोए हुए थे और दोनों सुपुत्र सतगुरु के पास ही थे तो सतगुरु ने बाबा श्री चंद जी को अपने पास बुलाया की पुत्र चादरों को धुलने के लिए सरोवर के पास लेकर जाएं और उसको सुखा कर तुरंत मेरे पास लेकर आए तो ये सुनकर बाबा श्री चंद जी ने कहा कि हम थके हुए हैं और हम आराम करना चाहते हैं हमारे हाथ पानी में पड़ने से ठरते हैं जब दिन होगा तो नौकर इसको ले आएगा हमसे यह काम नहीं होता और उसके बाद जब सतगुरु ने अपने छोटे पुत्र बाबा लख्मी दास जी को कहा तो उन्होंने भी ऐसा ही उत्तर दिया तो उसके बाद जब सतगुरु ने भाई लहना जी को कहा कि पुरखा जा हमारी चादर धुल कर ले आ तो बड़े भागों वाले भाई लहना जी सतगुरु की आज्ञा पाकर सरोवर पर जाकर चादर धुलने लगे तो जब भाई लहना जी सरोवर पर गए थे तब रात थी और जब भाई लहना जी ने चादर धुलनी शुरू की तो तुरंत ही दिन हो गया और धूप निकल गई तो ये देख कर मन में बहुत हैरान हुए चादर को धोकर और सुखाकर सतगुरु के पास लेकर आए और सतगुरु के आगे रखकर सतगुरु के आगे अपना शीश झुकाया तो गुरु जी ने उनको उठाया और कहा की हे अच्छी मतवाले तुम जैसा इस जग में और कोई दूसरा नहीं, कितनी रात पड़ी हुई थी जब तुमने चादर धुली तो यह सुन कर भाई लेहणा जी ने कहा कि आप अपनी गति खुद ही जानते हैं तो यह सुनकर सतगुरु ने कहा कि जिस के भागों में जो चीज होती है वही उसको मिलती है उसके बिना किसी को कुछ नहीं मिल सकता भले ही वह करोड़ों यतन कर ले तो और परीक्षा लेने की सतगुरु के मन में चाह थी तो एक दिन सतगुरु सिखों के बीच बैठे थे और सतगुरु के दोनों पुत्र भी वहीं पर मौजूद थे और उस समय माता जी भी पास ही मौजूद थे तो सतगुरु ने एक बर्तन लिया और साथ ही में कीचड़ पड़ा हुआ था तो सतगुरु ने उस बर्तन को उस कीचड़ में फेंक दिया और फिर बाबा श्री चंद जी को आज्ञा की कि पुत्र बर्तन कीचड़ में गिर पड़ा है उसको वहां से निकाल कर मेरे पास लेकर आओ और उसको जल्द से धुलकर साफ करो तो ये सुनकर बाबा श्री चंद जी बोले कि मैंने अपने ऊपर बहुत कीमती कपड़े डाले हुए हैं मैं इस बर्तन की खातिर इनको गंदा नहीं करूंगा यह पानी बहुत गंदा है मेरे इर्द-गिर्द बहुत दास सिख हैं वह मेरा हुक्म मानते हैं वह देरी नहीं करेंगे मुझे आज्ञा दें मैं उनको कहता हूं वह तुरंत ही उसको निकाल कर ले आएंगे और अगर मैं निकाल लूंगा तो मेरी महिमा कम हो जाएगी तो इस तरह सुनकर सतगुरु ने अपने दूसरे पुत्र बाबा लख्मी दास जी को कहा कि आप उसको निकाल कर लेकर आए और उसको साफ कर कर मेरे पास लेकर आओ तो यह सुनकर बाबा लख्मी दास जी ने कहा कि पिताजी आप बहुत समझदार हैं लेकिन यह काम आप हमसे करवा रहे हैं सभी लोगों में आप हमारा सम्मान कम कर रहे हैं आपका इस तरह का आपका स्वभाव है आप हमें आज्ञा देते हो लेकिन हमने करना नहीं है तो उसके बाद सतगुरु नानक ने भाई लहना जी की तरफ देखा और कहा कि बड़े भागों वाले इस बर्तन को निकालकर और इसको धुलकर साफ कर कर हमारे पास लेकर आओ तो साध संगत जी भाई लहना जी ने बेशक बहुत कीमती कपड़े डाले हुए थे लेकिन सतगुरु की आज्ञा पाकर उन्होंने किसी तरह की कोई देरी ना की और तुरंत ही कीचड़ में छलांग लगा दी क्योंकि गुरु जी की आज्ञा का पालन करना था और यही उनका धर्म था तो वह तुरंत बर्तन को बाहर लेकर आए और उसको साफ कर कर बहुत सुंदर बना दिया तो भाई लहना जी के कपड़े कीचड़ से भर गए थे और इतना कीचड़ लग गया था कि भाई लहना जी पहचाने नहीं जा रहे थे तो सभी यह देख कर हैरान हो गए और कुछ और लोगों ने यह देखकर धन-धन कहा ! सिखी तलवार से भी तीखी है वह लोग धन है जो सिखी तक पहुंच गए हैं तो गुरु जी ये देखकर बहुत प्रसन्न हुए और श्रेष्ठ मतवाले भाई लेहणा जी को वचन किया कि हाथ जोड़ कर सिर झुका कर करतार को वंदना करो आप की बराबरी और कोई नहीं कर सकता आप बहुत बड़ी पदवी हासिल करोगे तो इतना सुनकर भाई लहना जी ने सतगुरु के चरण कमलों को पकड़ लिया और उनके आगे शीश झुकाकर अंदर बहुत प्रसन्न हुए और फिर उसके बाद काफी समय वहां पर बिताया वह सतगुरु की सेवा में हाजिर रहते थे तो एक दिन भाई बूढ़ा के मन में आया कि मैं भी बहुत सेवा करता हूं सतगुरु की आज्ञा का पालन करता हूं लेकिन फिर भी सद्गुरु की कृपा भाई लहना जी पर ज्यादा है साध संगत जी सतगुरु नानक अंतर्यामी थे तो उन्होंने परखने की एक विधि बनाई तो एक रात भाई बूढ़ा जी और भाई लहना जी सतगुरु के पास थे और सतगुरु ने वचन किया की हे भाई बूढ़े बाहर निकल कर देख कि कितने पहर रात रह गई है और जितनी रह गई है वह बताओ, स्नान करने का समय हुआ है या नहीं, तो भाई बूढ़ा जी आज्ञा पाकर बाहर निकले और कहा कि हे गति दाते आधी रात पड़ी हुई है तो सतगुरु ने कहा कि इतनी नहीं है एक पहर ही रात पड़ी हुई है आप अच्छी तरह से दोबारा देखें तो फिर भाई बुढ़ा जी ने दोबारा देखा और कहा कि प्रभु जी आधी रात पड़ी हुई है एक पहर नहीं ! मैंने अच्छी तरह देखा है तो सिखों के प्यारे सतगुरु ने कहा कि भाई बूढ़ा आपने अच्छी तरह से नहीं देखा है रात एक पहर ही बाकी है तो भाई बूढ़ा ने कहा कि नहीं गुरु जी आधी रात ही पड़ी हुई है तो ऐसा उन्होंने तीन बार कहा तीन बार यह वचन किए और गुरु जी के हुकम अनुसार उत्तर ना दिया तो उसके बाद सतगुरु ने भाई लहना जी को कहा कि अब आप जाएं बाहर जाकर देखे हैं कि कितनी रात पड़ी हुई है और आकर हमें बताएं तो सतगुरु की आज्ञा पाकर भाई लहना जी तुरंत बाहर गए और आकाश की तरफ देखा और आकर सतगुरु को बताया कि गुरु जी आधी रात पड़ी हुई है तो गुरुजी ने कहा की भाई लहना अच्छी तरह से देखो रात अब एक पहर ही बाकी है तो ये सुनकर भाई लहना जी ने हृदय में विचार किया कि रात तो आधी ही पड़ी हुई है और वह सोचने लगे कि पता नहीं सतगुरु के वचन में क्या राज है और कौन सी सुंदरता निकल पड़नी है जो गुरुजी को अच्छा लगता है वह हम दास समझ नहीं सकते और इस तरह हृदय में धारण कर कर बोले कि गुरु जी मेरी आंखें नींद से भरी हुई है इसलिए मैंने आधी रात देखी है लेकीन रात एक पहर ही रहती है अब जाकर मालूम हुआ है जितनी रात आपने बताई है मैंने तो उतनी ही देखी है मैंने और नहीं देखी और अब आपने जितनी रखी है उतनी ही रहती है सभी समय के आप मालिक हो मुझसे भूल हो गई है मुझे खिमां करें आप अवगुण हार को सदा ही बख्श देते हो मैं माडी मतवाला अच्छी तरह से देख नहीं सका मैंने आप जी से झूठ बोला है तो ये सुनकर गुरुजी भाई लहना जी से बहुत प्रसन्न हुए और उनको सबसे महान जाना और कहा कि तू कसौटी पर खरा उतरा है और तू सोने की तरह शुद्ध है साध संगत जी इस तरह सेवक की हर तरह की परख की गई कोई कमी नहीं छोड़ी और उनको रूहानियत का खजाना पाने के लायक समझा उन पर कृपा की और बहुत प्रसन्न हुए और ताकत देने की मन में विधि बनाई थी सत्गुरु सोच रहे थे अब मैं अपना जामा बदल दूं और दिल में निश्चय कर लिया कि गुरुजी सुखों के सागर और पूर्ण महात्मा है जो सेवकों की जमों की फाही काटते हैं उसका ना कोई रूप है ना रंग है ना आकार है ना शरीर है ना रोग है ना शौक है वह सदा ही काल रहित है वह पूर्ण परमेश्वर और पुरुषोत्तम है उसका पार नहीं पाया जा सकता उसकी कोई जात पात नहीं और उसका कोई माता-पिता नहीं और उसका कोई भाई नहीं, वेद उसको अनंत कहते हैं और उस करतार ने अवतार धारण किया है और वह नानक रूप इस संसार में भी चल रहा है जीव जंतु और पेड़ पौधों की जिसने रचना की है नर नारियों के जिसने चिन्ह बनाए है जो जोत स्वरूप अनुपम रूप है और जो राजाओं का राजा है आदि है वह अपार है साधु जन सदा चित लगाकर उसका सिमरन करते हैं सो सतगुरु नानक ने मन में यह बात पक्की कर ली कि गुरु गद्दी भाई लहना जी को देखकर समा जाऊं तो सवेरे सुबह उठकर सद्गुरु दरिया की तरफ स्नान करने चल पड़े और भाई लहना जी भी सतगुरु के साथ थे जिन की महिमा अपार है जब वे दरिया के किनारे चले गए तो सतगुरु ने अपने कपड़े उतारे और सतगुरु जल में प्रवेश कर गए तो सद्गुरु स्नान कर कर किनारे पर खड़े रहे जिन्होंने करोड़ों का उद्धार किया है उस समय भाई लहना जी ने भी स्नान किया और किनारे पर ध्यान लगा कर बैठ गए और दसवें द्वार पर स्वांस टिकाएं और प्रेम में मगन होकर ध्यान टिकाया जो सतगुरु नानक का सुंदर स्वरूप था उसको अपने हृदय में धारण किया, अंदर टिकाया वह वेसुध हो गए और देहि की सूझ भूल गई और दिल में अमोलक सुख प्राप्त किया ध्यान में सतगुरु बैठे रहे गुरु स्वरूप की लिव लग गई और श्री गुरु जी जो प्रेम की डोरी के साथ बंधे हुए थे उन्होंने आप तप करना छोड़ दिया सतगुरु उसी समय किनारे पर आ गए और उन्होंने भाई लहना जी को देखा जिनको उस समय अपने तन की सूझ नहीं थी भाई लहना जी बाहर का सुंदर स्वरूप नहीं देख रहे थे अंतर्मुखी होकर ध्यान के रूप के अनुकूल हो रहे थे भाव उसमें मग्न थे उस समय सतगुरु नानक का जो स्वरूप भाई लहना जी के ध्यान में था वे रूप गुरु जी ने भाई लहना जी से छुपा लिया तब भाई लहना जी सावधान हो गए और उन्होंने अपनी आंखें खोली उन्होंने अपने सामने गुरुजी को देखा और हाथ जोड़कर प्रणाम किया और उनको साथ लेकर चल पड़े और धर्मशाला में विराजमान हो गए जो गुरुजी सिखों को सभी सुखों से सुशोभित करते हैं भाई लहना जी को वहां पर बिठाकर विशाल संगत को बुला लिया और दोनों पुत्रों को भी बुलाया और वह भी धर्मशाला के अंदर आ गए भाई लहना जी को बड़े ही प्रेम पूर्वक सतगुरु ने देखा पांच पैसे और एक नारियल लिया उनके इर्द गिर्द तीन प्रक्रिया की और हाथों से भेंट आगे कर दी, हाथ जोड़ कर सिर निभाया भाई लहना जी ये देखकर डर गए और हैरान रह गए और मन में सोचा की ये महान उल्टी नीति हो गई है और उस समय इस तरह वचन किया कि आप तो खुद करतार परमेश्वर हो राजाओं के राजा हो आपने जिस शरीर के आगे सिर निभाया है वह उचित नहीं है मैंने यह देखकर बहुत बड़ा दुख पाया है यह सुनकर गुरु जी ने कृपा धारण कर इस तरह कहा पुरखों अब आप चुप रहे, आपने कोई वचन नहीं कहना है आप जो भी बात कहोगे वह सच होगी दोबारा से कोई वचन नहीं करना है मेरी इस तरह आज्ञा मानो अब आप सारे जगत के गुरु हो गए हो आज से आपका नाम अंगद हो गया है मैंने आपको अपने निजी अंगों से बनाया है सतनाम के सिमरन को प्रगट करो और इसका प्रचार करो इस तरह कह कर हृदय प्रसन्न हो गया विशाल प्रकाश हो गया जगत में उल्टी गंगा चला दी गुरु को गुरुआई देकर गुरु बना दिया इस प्रकार तखत पर बिठा दिया और फिर सभी को वचन किया जो कोई भी मेरा शिष्य है वह इनके चरण कमलों पर सिर रखकर इनको प्रणाम करे और इनको मेरा ही स्वरूप जानो तो सतगुरु की आज्ञा मानकर भाई बुढ़ा जी और सिख तुरंत सद्गुरु की वंदना करने आए और फिर उसके बाद सतगुरु नानक ने सतगुरु अंगद देव जी को कहा कि हमारे बाद जो जन्म ले उन सब की यह गुरबाणी मुक्तिदाता होवेगी जैसे जहाज पर चढ़कर सागर पार कर लिया जाता है उसी तरह इस बानी को पढ़कर संसार का उद्धार हो जाएगा यह सुनकर गुरु अंगद देव जी ने वंदना की और गुरबाणी गायन करने लगे फिर सतगुरु ने पहली बानी का नाम "जप" रखा और अपने मुख से महिमा की और जब भी मनुष्य सुख का अभिलाषी होगा वह रात उठकर स्नान करें श्री जपजी साहब को चित लगाकर पढ़ें, अपने मन में गुरबाणी के अर्थों के विचार करें तो वह किसी शंका के बगैर मुक्ति प्राप्त करेगा, श्री जप जी साहब के सेवन की जिनके मन में प्रीत होगी उनको मेरी निकटता प्राप्त होगी कि जो एक मन हो कर कामना धारण करेंगे उनकी कामना तुरंत पूरी होवेगी फिर जंतर मंतर और महान मंत्र भूत, प्रेत और द्वेत मेरे सिख का कुछ नहीं बिगाड़ सकते इनमें से कोई भी उसके नजदीक नहीं जाएगा जो चित लगाकर जपजी साहब पड़ेंगे जिन मनुष्यों ने यह देह पाई है वह श्री जप जी साहब के बिना व्यर्थ देह गवा देंगे व्यर्थ जन्म जाया कर देंगे सिखों के लिए गुरु का मंत्र योग है यह आगे की दुनिया में बहुत सुख देता है जो गुरु का आशिक होकर जपजी साहब को जवानी याद नहीं करता वह गुरु का सिख नहीं कहलाता श्री जपजी साहब का सेवन एक मन हो कर और मनचित लगाकर करना चाहिए, दास ने बहुत थोड़ी महिमा बयान की है इसकी महिमा बयान नहीं की जा सकती वह बहुत ऊंची अकथ और अथाह है श्री जपजी साहिब सुखों के दाता हैं हे मेरे ! मन तू सदा श्री जपजी साहब का सेवन कर, देवता विधि प्राप्त करना चाहते हैं वे सोचते हैं कि किसी तरह मनुष्य मिले ? देह प्राप्त हो और हम नानक पंथ धारण करें श्री जपजी साहब का सेवन करने से जमों की फाहि कट जाती है और मनुष्य को अविनाशी की पदवी प्राप्त होती है इस तरह जो देवता चाहते हैं साध संगत संगत जी वह सब कुछ आपको पहले से ही प्राप्त है भाव आप सभी को मनुष्य देहि पहले से ही मिली हुई है, बार-बार क्या बताएं अंत समय बहुत दुखदाई होगा उस समय पछताएगा और हाथ देखेगा और कहेगा कि मैंने जन्म व्यर्थ क्यों गवा दिया दुर्लभ मनुष्य जामा एक बार ही पाया है, दूसरा कलयुग का समय है जिसके कारण प्रभु थोड़ी सेवा से ही दयाल हो जाता है इस समय जो भूल जाएगा वह सुमेत पर्वत पर चढ़कर पताल में गिर जाएगा, तो साध संगत जी श्री जपजी साहब का रोज पाठ करें इसे जन्मों जन्मों के पाप कट जाते हैं धीरे-धीरे मन निर्मल हो जाता है और मोक्ष प्राप्त होता है और दुनिया के बंधन भी दूर हो जाते हैं और जिस मनुष्य ने शब्द का अभ्यास किया है उसके लिए कोई और कृत्य करने बाकी नहीं रह जाएंगे साध संगत जी आज के प्रसंग कि यहीं पर समाप्ति होती है जी प्रसंग सुनाते हुई अनेक भूलों कि क्षमा बक्शी जी ।

साध संगत जी इसी के साथ हम आपसे इजाजत लेते हैं आगे मिलेंगे एक नई साखी के साथ, अगर आपको ये साखी अच्छी लगी हो तो इसे और संगत के साथ शेयर जरुर कीजिए, ताकि यह संदेश गुरु के हर प्रेमी सत्संगी के पास पहुंच सकें और अगर आप साखियां, सत्संग और रूहानियत से जुड़ी बातें पढ़ना पसंद करते है तो आप नीचे E-Mail डालकर इस Website को Subscribe कर लीजिए, ताकि हर नई साखी की Notification आप तक पहुंच सके । 

By Sant Vachan


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