Guru Nanak Sakhi । संगत में बैठकर लंगर खाने से क्या होता है ? सतगुरु नानक क्या उपदेश करते हैं ?

 

साध संगत जी आज की साखी संगत के लिए लंगर लगाने वाले लोग संगत की सेवक करने वाले लोग, क्या हासिल करते हैं सतगुरु नानक संगत की सेवा करने वालो को क्या कहते है, आइए बड़े ही प्रेम और प्यार के साथ आज का ये प्रसंग सरवन करते है ।

साध संगत जी, भाई सेठा, भाई उगबंदा और भाई सुभागा, यह तीनों चुनियापुर में रहते थे और जात के अरोड़ा थे यह गुरु सिखों की बहुत सेवा करते थे और रात को जाग कर गुरु को हृदय में धारण करते थे, भूखे को भोजन देते थे और नंगों को देखकर उन्हें वस्त्र प्रदान करते थे तो उन्होंने सत गुरु अर्जन देव जी महाराज जी से पूछा की हे गुरु जी ! हम जो भोजन पितरों के लिए बनवाते हैं क्या वह भोजन उनको पहुंचता है या फिर नहीं ? तो उनके इस प्रश्न का जवाब देते हुए सतगुरु ने फरमाया था कि इसको लेकर सतगुरु नानक ने बानी में फरमाया है कि आगे जाकर वही मिलता है जिसने अपनी कमाई में से लोडवंदो की सेवा की होती है तो सतगुरु के इन वचनों को सुनकर उन्होंने कहा कि हमें कैसे पता चलेगा कि हमारे पितर कहां पर है वह स्वर्ग में है या फिर नर्क में है या फिर उन्होने कोई जून तो नहीं धारण कर ली है और सतगुरु ने कहा कि हिंदुओं में यह परंपरा है कि अपने मरे हुए पितरों को याद कर उनके लिए भोजन बनवाना, लंगर लगवाना और भोग लगाना लेकिन सिख धर्म में इसके लिए मनाही है, लंगर लगाने का असल उद्देश्य मन में निम्रता धारण कर दूसरों की सेवा करना है, संगत में बैठकर लंगर खाने से मन निर्मल होता है, अहंकार का नाश होता है, चार वर्णों के सारे पितर ब्राह्मणों में प्रवेश करते हैं और सिखों के जो पितर है वह उन्हीं में निवास करते हैं सतगुरु नानक ने फरमाया है "पितर पी भपरे कयूं क्यों पावे, कौआ कूकर खाई" जिस तरह डोर के साथ बंधी हुई पतंग धरती की तरफ झूलती है इस तरह पितरों की विधि बन आती है तो साध संगत जी इस तरह वचन हुए, भाई बेड़ा और भाई जेठा सेठी दोनों सतगुरु अर्जन देव जी महाराज जी के पास आए और सतगुरु से कहने लगे कि हे गुरु जी हम आपकी आज्ञा में रहते हैं आपके वचनों की पालना करते हैं लोडबंदों की सेवा करते हैं संगत की सेवा करते हैं हमें अपनी आज्ञा मानने का बल बक्शे और वह कहने लगे कि ब्राह्मण हुजता करते हैं और कहते हैं कि हम पांच प्रकार की हिंसा हर रोज करते हैं उखली में चावल छोड़ते है उसमें कूटने की हिंसा है चक्की पीसते हैं उसमें पीसने की हिंसा है, झाड़ू फेरते हैं उसमें लपाई की हिंसा है और चूल्हे में जो घी हम साड़ते है वह भी वह हिंसा मानते है और जल भी पाप का कारण बनता है इस तरह हम पांच हिंसा, भाव की पाप करते हैं और वे कहने लगे कि ब्राह्मण कहते हैं कि हम इन पांचों की आहुति देते हैं इसलिए हम इस हिंसा से बच जाते हैं और भोजन को पवित्र कर लेते हैं लेकिन आप ऐसा नहीं करते और पाप करने की प्रक्रिया में शामिल होते हो तो ये सुनकर सत गुरु अर्जन देव जी महाराज जी ने कहा कि आप जब संगत को भोजन करवाते हो और आप सब की सेवा कर के अंत में खुद ग्रहण करते हो इसे भोजन पवित्र हो जाता है क्योंकि अग्नि देवता तो पहले ही हमारे शरीर के अंदर है चेतन रूप में नारायण सब में है और सूरज सबके नेत्रों में है हमारी दोनों नाकों में अश्वनी कुमार देवता है और दिश पालक देवते हमारे कानों में है हमारी जीवा के ऊपर वरुण का वासा है अपने रोमों को सारी बनस्पति समझे और सतगुरु कहने लगे कि देवताओं का मालिक इंदर है, प्रज्ञा पति देवता लिंग को जानो और अपने चरणों में प्रभु विश को पहचानो, पवन देवता को अपनी चमड़ी में जानो इस तरह सभी देवता हमारे शरीर में विराजमान है वाहेगुरु का नाम लेकर जब ग्राही मुंह में डालते हो तो सभी देवताओं को तृप्त कर लेते हो और जो सिखों को गुरु हित के लिए देते हैं वह बाद में महान फल प्राप्त करते हैं जो अरदास कर कर परशाद बांटते हैं उनके सभी विघ्न दूर हो जाते हैं प्रभु सभी देवताओं का मूल है प्रभु के तृप्त हो जाने से सभी देवता तृप्त हो जाते हैं जैसे हम वृक्ष की जड़ को पानी देते हैं और वृक्ष की जड़ को पानी देने से वृक्ष के सारे पत्ते और टहनियां हरे भरे हो जाते हैं तो सतगुरु के ऐसे वचन सुनकर  सिखों ने सतगुरु अर्जन देव जी के सामने सिर निभाया और उनकी वंदना की और हाथ जोड़कर सतगुरु के आगे बिनती की कि हे गुरुजी हमें बताएं कि हम कौन सा नाम जपे तो सतगुरु ने इस प्रश्न का जवाब देते हुए कहा की सभी नाम प्रभु के है और सभी नाम भवजल पार ले जाने वाले हैं सतगुरु नानक देव जी ने वाहेगुरु शब्द की रचना की है इसलिए इसका जाप करें जैसे प्रभु के चार रूप माने गए हैं शरीर पुरख, शंद पुरख, देव पुरख और महा पुरख इस तरह ही ये नाम चारों वर्णों के लिए अनुपम है जैसे कि सेना के चार अंग होते हैं और चारों वैरी का नाश करते हैं इस तरह ही 4 अक्षरों का बना वाहेगुरु शब्द वेरियाें और पापों का नाश करता है, चारों वेदों को रिडक कर ये सार निकाला है और वाहेगुरू शब्द जहाज है और सिखों को तारने के लिए बना है, सिख इसकी महिमा जानकर इसका जाप करते हैं उनके लिए कोई और करतब नहीं रहा है जिसने वाहेगुरु नाम अपने हृदय में बसा लिया है उसने समझो चारों पदार्थ अपनी तली में धर लिए है भाव 4 पदार्थ उस ने पा लिऐ है इसका कहां तक महात्मा बताया जाए इसके सिमरन के साथ आतम ज्ञान प्राप्त हो जाता है इसका सिमरन करने से उनके भाग जागे है, तो साध संगत जी वहां पर एक सिख रविदास नाम गांव में रहता था उसने सत गुरु अर्जन देव जी से कहा कि गुरु जी मैं आपके द्वारा रची हुई वाणी को पढ़ता हूं और उस पर विचार करता हूं लेकिन मन से बुरे ख्याल नहीं जाते यह बुरी मत के पीछे पड़ा रहता है मैं इसका क्या करूं तो उसके इस प्रश्न का जवाब देते हुए सतगुरु ने कहा की सफेद कपड़े को जल्दी ही रंग चढ़ जाता है लेकिन मैले कपड़े को रंग नहीं चढ़ता लेकिन उसको धुलने से उसकी मेल उतर जाती है उसके बाद अगर उसको रंगा जाए तो रंग जल्दी चढ़ जाता है तो ये सुनकर वह सिख बोला कि गुरु जी सुखम मन को कैसे भुला जाए मैं अनजान हूं कृपया कर मुझे बताएं तो सतगुरु ने श्री गुरु नानक देव जी की वाणी का उच्चारण करते हुए कहा कि जप जी साहब में फरमाया है "भरिए हथ पैर तन देह पानी धोते उतरस खेह, मूत पुलिती कपड़ होए देह साबुन लाईए ओ धोए, भरिए मत पापा के संग ओ धोपे नावे के रंग" जिसका अर्थ है कि अगर हाथ पैर मिट्टी से भर जाए अगर गंदे हो जाए तो उसको पानी से धुला जा सकता है और पानी से धोने से वह साफ़ हो जाते हैं और अगर कोई कपड़ा पेशाब आदि से गंदा हो जाता है तो उसको साबुन आदि से धुल कर साफ कर लिया जाता है परंतु अगर पाप करने से बुद्धि भृष्ठ और अपवित्र हो जाए तो उसको सिमरन और भक्ति के साथ ही पवित्र और स्वच्छ किया जा सकता है शरीर और वस्त्र जो स्थूल है वे तो जल और साबुन से धुले जा सकते है बुद्धि और पाप को सूखम जानो, ये मन को महान मलीम करते हैं सतनाम ही सूखम है जिसका सिमरन करने से सारी मेल धुल जाती है जिसका जाप करने से प्रभु के प्रेम का रंग चढ जाता है और प्रभु जाप करने वाले को अपने आप में मिला लेता है और सतगुरु कहने लगे कि श्रद्धा और धीरज को अपने हृदय में धारण करो और गुरु वाणी पढ़कर और विचार कर उस पर अमल करो और नाम का सिमरन करो ताकि पापों की मैल दूर हो जाए ऐसे धीरे-धीरे आप गुरमत हासिल कर लोगे लाखों जन्मों के पाप भजन करने से दूर हो जाते है यह सुनकर सिखों ने मन में श्रद्धा धारण की और उनके मन में धीरज आया और प्रभु के नाम का सिमरन करने लगे, वह लिव जोड़कर वह शब्दों का गायन करते थे और एक मन होकर अर्थ सुनाते थे, विचार कर कर मन कोमल हो जाता था और प्रभु को हृदय में धारण कर रखते थे, साध संगत जी जो व्यक्ति पढ़कर उपदेश देता है लेकिन आप उस पर अमल नहीं करता उसकी छाया किसी पर नहीं पड़ती, लोग सुनते हैं लेकिन उन पर असर नहीं होता इस तरह से सतगुरु ने सिखों को उपदेश दिया और उन्होंने सुनकर शुभ गुण अपने अंदर धारण किए और चारों तरफ सतगुरु की जय जय कार हो गई, साध संगत जी के आज के प्रसंग की यहीं पर समाप्ति होती है जी प्रसंग सुनाते हुई अनेक भूलों की क्षमा बक्शे जी ।

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By Sant Vachan


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