एक सिख सतगुरू जी के पास रहता था उसका नाम गुरमुख था, उसने हाथ जोड़कर बेनती की कि मैं आपकी शरण आया हुं, साध संगत जी गुरू जी के सन्नमुख सिख भाना मानते है और उसने कहा कि हे सच्चे पातशाह, दुखों को दूरकरने वाले दाता मुझे भी किसी ऐसे सिख के दर्शन करवाए जो भाने में रहता है
उसकी रजा में रहता है भाव जो भाना मानता है तो ये सुनकर गुरु जी ने कहा कि गुजरात नगर में एक भिखारी नाम का एक सिख रहता है अब आप उसके दर्शन करने के लिए चले जाओ, गुरमुख गुरु के वचनों को मानने वाले है, ये विचार कर वह चल पड़ा और ये सोचा की कोई बड़ा सिख होवेगा जैसा कि सत्गुरु ने कहा है, वह प्रभू का कैसे भाना मानता है और क्या कीरत कर अपनी उपजीवका निकाल रहा है तो वह उससे मिलाप करने के लिए गुजरात नगर पहुंच गया और जाकर भाई भिखारी के बारे में पूछा, घर में जाकर आनंद मंगल होता हुआ देखा, तो जब वह पहुंच गया तो उसने देखा की स्त्रियां अपनें पुत्तर के विवाह का गीत गा रही थी तो उन्होने भिखारी को किरत करता हुआ देखा जो की फटी हुईं चदर को सी रहा था, पेरी पेना कह कर गुरमुख बैठ गया और कहा कि मुझे आप जी के पास गुरु जी ने भेजा है तो यह सुनकर भिखारी ने उनका सम्मान किया और नमस्कार कर पास बैठ गया तो जब भिखारी फिर अपने काम लग गया तो गुरुमुख अपने मन में बहुत हैरान हुआ तो भाई भिखारी ने उसके दिल की बात जान ली और फिर उसकी बाजू पकड़ कर उठ गए तो वह विवाह की समगरी दिखाने लगा की ये पुत्र के लिए कपड़े सिलवाई करवाए है और ये गहने घड़े है पुत्र इन गहनों से श्रृंगार करेगा और कहने लगा की यहां पर देखे बहुत मिठाई पड़ी हुइ है और हलवाई अनेक परकार की और बना रहे है कफन और तख्ता भी सुधार कर रखा है तो गुरमुख ने हैरान होकर पूछा की ये सामान किस लिए रखा है तो भाई भिखारी ने कहा की फिर बताएंगे, जब ये समान किसी कार्ज में आएगा तो इस तरह कह कर वह पहले स्थान पर आ गया, दरी को बहुत अच्छे तरीके से सिलने लगा गुरमुख दिल में बहुत हैरान हो रहा था कि सतगुरु जी ने इस का यस किया है लेकिन ये तो अपने धंधों में बहुत फसा हुआ है ये भक्ती करकर कैसे भाना मानता है तो जब रात हुई तो भिखारी ने उसकी बहुत सेवा की, खाने पीने का समान देकर, रात के लिए बिस्तर भी दिया तो जब सुबह हुई तो बारात गई पुत्र का विवाह कर लेकर आए, सभी परकार की रस्में पूरी की, तो घर में आकर जब दो दिन बतीत किए तो रात को शूल होने से पुत्र की मृत्यु हो गईं, जो इस्त्रियां गा रही थीं वह रोने लग पड़ी तो भाई भिखारी ने कफन लें लिया और अपने पुत्र को तख्ते में रखा, तो बहुत लकड़ियां डाल कर पुत्र का संस्कार कर दिया, तो कीर्तन कर परशाद बाटा गया, जिस दरी की वह सिलाई कर रहें थे वह विशा दी गईं, लोग आकार इक्कठे होकर बैठने लगे, तो दिन के समय गुरमुख सोचता रहा कि ये तो बहुत अस्चरज हुआ है और हिर्दे में विचारता रहा, तो रात के समय भाई भिखारी को अकेला देख कर गुरमुख ने कहा की अगर आप पहले ही पुत्र की मौत के बारे में जानते थे तो नूह को घर में विवाह कर क्यों लेकर आए, धन खर्च कर आपने बहुत उत्सव किया है एक दो दिनों में सब कुछ दूर हो गया है तो ये सुनकर वह कहने लगे कि अगर आपके पास इतनी शक्ति थीं तो आप सतगुरु के सामने सिनेमर होकर उमर मांग लेते, किरपानिधान आपका जीवन देखकर आपको श्रेष्ठ वर देते, फिर घर में इतना संकट न होता, रोते हुए परिवार की प्रीत को अपने हृदय में धारण करते, मेरे मन में इसको लेकर बहुत शंका है, शक्ति होते हुए इतना विकराल कष्ट बर्दाश्त किया है तो ये सुनकर भाई भिखारी जी ने कहा की आपने ये मनमुख की रीति उचारी है, परमेश्व जो भी करता है ठीक ही करता है उसके बारे जो मन में दुख और ससे धारण करता है वह भावी को मेटने का यतन करता है उसकी कभी भी प्रभू के साथ भेंट नही होती, जैसे प्रभू की इच्छा होती है उसमे परसन्न रहो, प्रभू जी सभी के लिए एक जेसे है उनका किसी के साथ भी प्यार या वैर नही होता वह सदा कर्म देखकर फ़ल देते है ये कष्ट आए बने तो शक्ति करके दूर करें, जो मनुष्य पाप करता है वह उसका फल भुगतता है कोई सुखी होवे उसको कहकर दुख देवे या श्राप देवे, ऐसा मनुष्य प्रभू की दरगाह में आदर नहीं पाता, मायावादी राजा जो करे, अगर वह सेवक को अच्छा लगे तो सेवक भी उस तरफ़ से सुख हासिल करता है जो धरती के राजे की कीरत में नुक्स निकलता है तो राजा उसपर गुस्सा करता है और उसको मूर्ख समझता है इस तरह ही थोड़े ज्ञान की किरत में होता है, प्रभु सर्भ समर्थ है जेसे वह होता है उसी तरह वह करता है, कर्मो के बिना दुख और सुख नही देता, जीव उसी का भुगतान करता है जो वह खेत में बीजता है इस तरह का विचार जिसके मन में हो वह प्रभु की कीरत में सदा ही प्रसन्न होते है इसको संत सम्मुख कहते है मनमुख हुज्ता के कारण अंत में दुख पाते हैं सतगुरु से केवल इस तरह मांगो जिस तरह प्रभू की कीरत में आनंद प्राप्त होता है, सारे पदार्थ नाशवान है इनके पीछे लगकर अकारण जनम न ग्वाओ और कहने लगे की मेरे पुत्र और नूह ने पिछले जनम जो भी कर्म किए है संसे हीन होकर सारा दृष्टान सुनो, मेरा पुत्र पिछले जन्म में तपस्वी था, नगर में आकार मांग कर खाता था और फिर जंगल में चला जाता था और तप करकर परमेश्व की आराधना करता था बहुत यतन करके उसने अपनी इंद्रियों पर काबू किया एक दिन नगर में से जब जंगल की तरफ़ चला तो रास्ते में एक वैश्या को देखकर उसके रुप पर मोहित हो गया, तपस्वी का मन देखकर भ्रम गया, हठ करकर मिला और जंगल में नही गया, काल किर्या ऐसी हुइ की दोनो की देह सिमरन करते ही छूट गईं, तप के फल के कारण ये मेरा पुत्र हुआ, प्रभू का सिमरन कर इसने सारा संकट दूर कर लिया, वह वेसवा अब मेरी नूह बनी है, तपस्वी नीति अनुसार इसने भी अब श्रेष्ठ मत धारण की है, सिख संगत की ये सेवा हासिल करेगी और अंत समय उत्तम पदवी हासिल करेगी, हे गुरमुख सुनो भाना मानकर मन को स्थिर करो, सतनाम का सिमरन करो और अहंकार को हृदय में से निकाल दो, मुक्ति के ये तीन साधन है गुरु जी और चतुर संत इस तरह कहते है तो भाई गुरमुख ने भाई भिखारी जी के वचन सुनकर दोनों हाथ जोड़कर बंदना की और कहा धन धन आपकी बड़ी बुद्धि और विलखन बुद्धि है मेरा नाम गुरमुख है लेकिन गुरमुख के लक्षण आप में है, जिस तरह की मेरे मन में पाने की चाहत थीं उस तरह का ही सत्गुरु ने मुझे दिखा दिया है, आपके दर्शन करने से पाप मिट जाते है और सदा ही गुरु जी के हृदय में अच्छा लगता है इस तरह दीन होकर चरणों में सिर धर कर उस्तत कर रहा था विदा होकर गुरु की नगरी में आया सिख का निस्चे देखकर गुरु जी प्रसन्न हुए यहां पर श्री गुरू अर्जन देव जी महाराज बैठे थे वहां जाकर गुरु जी के चरण कवलों में सिर निवाया तो गुरु जी ने मुस्कुरा कर कहा कि वहां पर जाकर कैसा सिख देखा है वह किस तरह की रहनी रहता है और कैसे सेवा करता है और हृदय में निश्चा करकर कैसे दुख सूख व्यतीत करता है ये सुनकर भाई गुरमुख बोला हे प्रभू गुरु जी आपके सिख अडोल है उनकी महिमा कही नही जा सकती वह दुख और सुख में एक सम्मान प्रसन्न रहते है फिर उसने भाई भिखारी का सारा प्रसंग सुनाया, जैसे की उसने भाई भिखारी के घर देखा था, भाई गुरमुख ने कहा जिस पर आपकी किरपा होती है ऐसा निस्चा वही मनुष्य धारण करता है, किरपा निधान गुरु जी ये सुनकर प्रसन्न हुए, अपने सेवक के श्रेष्ठ यस को सुना, गुरु जी अपनें प्यारे सिखों की सदा ही सहायता करते है, लोक परलोक में संभाल कर लेटे है, धन श्री गुरु अर्जन देव साहिब जी महाराज, साध संगत जी आज के परसंग की यही पर समाप्ति होती है, परसंग सुनाते हुईं अनेक भूलों की क्षमा बक्शे जी ।
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By Sant Vachan
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