साध संगत जी आज की साखी सतगुरु नानक देव जी महाराज जी की है जब एक बीबी सतगुरु नानक देव जी महाराज द्वारा उचारे गए शब्द के माध्यम से हर रोज़ दरिया पार करती थीं आइए बडे़ ही प्रेम और प्यार के साथ आज का ये प्रसंग सरवन करते है ।
साध संगत जी नाम के जहाज पर चढ़ना यही है कि मन की सारी इच्छाएं त्याग कर संसार समुंदर से टूट कर नाम के साथ जुड़ना है, नाम एक ऐसी शक्ति है जो संसार के पर्तख समुंद्रों को भी पार करती है, साध संगत जी एक वृद्ध माई अटक दरिया से पार रहती थीं, साध संगत में होने के कारण महापुरुषों की सेवा भावना वाली थीं जब कोई भी महात्मा मिलता था तो प्रेम सेहत नमस्कार करती थीं, जल पानी आदि की सेवा कर जन्म सफल करती थीं, क्योंकि जन्म सफल करने के लिए जैसा की सतगुरु ने फ़रमान किया है "हस्त चरण संत टहल कमाइए, नानक एहो संजम प्रभ किरपा पाइए" इस तरह से सेवा करते हुए उसे बहुत समय हो गया और अनेक साधु संतो की उसने सेवा की, आज आ गए सभी संतो के सरताज, जिनके चरणों की धूल के कणों में से, अनेक साधू जन्म लेते है भाव परमेश्वर के निराकार सवरुप में से सर्गुन सवरूप धारण कर आए हुए बेदी कुल के सूरज श्री गुरु नानक देव जी महाराज, साध संगत जी माई को खेतों में रोटी लेकर जाने के लिएं दरिया पार करना पड़ता था, गुरु जी रास्ते में बेठे थे तो माई ने सतगुरु को देख उन्हे नमस्कार की और पर्षाधा शकने के लिए बेनती की, तो सतगुरु जी ने कहा की माई ये पर्षाधा तो उन मेहनती लोगो का है जो खेतों में देर से काम कर रहे है ये पर्षाधा खेत में मेहनत कर रहें लोगो में बांट, तो ये सुनकर माई ने बेनती की कि महाराज जी मैं आप जी का वचन मानती हूं लेकिन मेरी भावना है कि मैने पर्षाधा आप जी को जरूर करवाना है तो वह अपने परिवार के लिए पर्रशाधा त्यार कर सतगुरु जी के लिए ले आई तो सतगुरु जी ने वह परशाधा किया, माता की भावना को देखते हुऐ बिर्ध शरीर को धारण कर कहने लगें की माता, जिसका खाए उसका भला भी करना पड़ता है और सतगुरु कहने लगे की माता तूं दरिया पार करने के लिय बहुत मुश्किलों का सामना करती है तब गुरु जी ने उस माता को सतनाम का मंत्र दिया और कहा कि ये दोनों दरिया ये परतख अटक दरिया और संसार जो दरिया का न्याय है उससे भी ये नाम पार करवाएगा और जब दरिया के किनारे पर आयेगी तब भरोसे के साथ ये पड़कर " सुनिए हाथ होवे असगाह " ये तुक पड़कर जल्दी ही दरिया का हाथ पैर पाणी हो जाया करेगा तो ये कहकर सतगुरु वहां से चले गए तो थोड़े दिनों के बाद एक और महात्मा सत्गुरु जी की जगह पर अपने चेले के साथ डेरे लगा कर बैठ गए तो जब माता गई उनको भोजन गृहण करने के लिय बेनती की कि महाराज जी आप हमारे घर में चरण डालें और पर्षाधा गृहण करें, तो भोजन करवाने के लिया माता महात्मा जी को साथ लेकर चली तो जब दरिया के कंडे पर पहुंचे तो महात्मा सोचने लगे की माई कमली है जो दरिया में सीधा ही जाए या रही है तो माई दरिया के किनारे पर चलती रही और मंजिल के नज़दीक पहुंच गईं लेकिन महात्मा दरिया के किनारे पर खड़े सोचते रहे, सोच रहें है की अब क्या करे, अगर चलते है तो डूबने का डर है और अगर नही चलते तो हासी होती है देखने वाले कहेंगे की माई तो पानी में तरी जा रही है और साध पाणी में डूबने से डरते है, तो महत्मायों ने लोक लज्जा के कारण तुरना ही ठीक समझा और तब गुरु अपने चेले को कहने लगा की हे चेले ! आगे होकर चल, तो चेला अपने गुरु को कहने लगा कि गुरुजी अपनी बढ़ाई करवाने के लिए आप हमेशा आगे रहे हो अब डूबने के लिए मुझे आगे कर रहे हो आगे चलने का आपका हक है क्योंकि चेले तो हमेशा पीछे चलते हैं तो इस तरह की बातें करते हुए कोई भी आगे ना बढ़े तो थोड़ी दूर जाकर माई ने पीछे मुड़कर देखा तो साधु वहां पर ही खड़े थे तो माई ने देखकर आवाज मारी कि महाराज आगे बढ़ो आप यहां पर क्यों खड़े हो तो आवाज को सुनते ही वह चल पड़े क्योंकि वह सोच रहे थे कि अब चलना ही पड़ेगा अगर नहीं चले तो उसके बिना बात नहीं बनेगी तो उन्होंने जल्दी-जल्दी पैर आगे बढ़ाएं और दरिया में गिर गए उनकी गोते खाने की आवाज उस माई के कानों में पड़ी की साध तो मर चले तो माई ने कहा कि उन्होंने ऐसे ही भेष धारण किया है नाम को हृदय में नहीं बसाया क्योंकि अगर नाम ह्रदय में बसा होता तो डूबना नही था और माई कहने लगी कि आप कच्चे गुरु के चेले हो मुझे पूरे गुरु श्री गुरु नानक देव जी मिले हैं और वो कहने लगी कि मेरा स्त्री जामा है और परिवार में रह रही हूं मेरे गुरु ने नाम को मेरे हृदय में बसा दिया है जिस नाम के प्रताप से मैं हर रोज इस दरिया को पार करती हूं तो माता ने उन पर दया कर कर साधु महापुरुषों को बचाया और ऊंची आवाज कर कहा कि मेरे पीछे मेरे गुरु की बताई गई तुक को पढ़ो मेरे गुरु का बताया गया मंत्र पढ़ो "सुनिए हाथ होवे असगह" तू इतना कहने की देर थी कि गुरु और चेला बच गए और बाहर आकर कहने लगे कि माता ये क्या तमाशा बना तो माता ने गुरु कृपा द्वारा मन में परमेश्वर के बसे हुए नाम की बरकते बताई और कहा कि जिनके मन में नाम बसा है उनके लिए ऐसे दरिया एक खेल है वह तो बड़ा दरिया जो संसार का है वह भी सहज ही तर जाते हैं तो उस महात्मा ने गुरु और चेला ने माई को माथा टेका और कहा कि है माता तू धन है असल साधु तो तू है हम तो केवल लिबास मात्र साधू है इसलिए सतगुरु जी फरमान करते हैं कि "जिस मन बसिया तर्या सोए" वह इस साखी के माध्यम से स्पष्ट हो जाता है कि जिसके हृदय में वाहेगुरु का नाम बसा है सतनाम का नाम बसा है वही तरा है फिर भले पर्ताख दरिया हो या फिर संसार रूप समुंदर हो "जिस मन बसे तरे जन सोए, जाके कर्म प्राप्त होए, हर के चरण हिरद्ये उर धार भव सागर चढ़ उत्तरे पार" परमेश्वर का नाम ही परमेश्वर के चरण है, "परब्रह्म दयाल सागर तारेया" वह परमेश्वर जिस पर दयाल होता है उसको इस संसार समुंदर में नाम से जोड़कर तार देता है "पारभरम कृपा करें साध संग सो भवजल तरे" "राखन को दूसर नही कोए तो निस्त्रे जो किरपा होए" महा तपत सागर संसार, प्रभ खिनमे पार उतारन हार" गुरु पूरे मेहरबान भर्म मारिया" पूरा गुरु जिस पर मेहरबान हुआ है उसने अपने अंदर से पांच किस्म का भ्रम और 7 किस्म का डर मार दिया है भाव दूर कर दिया है और हमारे हृदय में अंधकार का जो गाड़ा अंधकार छाया हुआ है उसको केवल सतगुरु जी ही दूर कर सकते हैं जीव की अपनी समरथा नहीं है कि वह भ्रम को दूर कर सकें जब गुरुजी मेहरबान होकर उपदेश बक्शते हैं और सिख निमर होकर उसको मानता है तो उसके हृदय में से अंधकार का अंधेरा दूर हो जाता है और अंदर ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, "नानक साधू संग जन्म मरण स्वरेया" सतगुरु जी फ़रमान करते हैं कि जिसको साधुओं की संगत गुरु कृपा द्वारा प्राप्त हुई है उसने अपना जन्म और मरण सवार लिया है ।
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By Sant Vachan
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