Guru Nanak Sakhi । एक वृद्ध माई का प्रेम श्री हरगोबिंद जी को अमृतसर से श्रीनगर कैसे ले आया ?

 

साध संगत जी श्री गुरु अर्जन देव जी महाराज जी ने सोडी माधो दास को कश्मीर में भेजा था उसने वहां जाकर सिखी का बहुत प्रचार किया जिसने जो भी इच्छा प्राप्त की उसमें श्रद्धा धारण कर गुरु जी पर श्रद्धा धारण कर ली, गुरुजी के चरण धोकर उनकी सेवा की और सिखी की महान महिमा देखी, शब्द पड़कर महान महिमा करवाते थे और गुरुजी हित वर्ता कर पाप दूर करते थे और कीर्तन सुनकर सुख प्राप्त करते थे इस तरह सिखी का बहुत विस्तार हुआ ।

सभी नाम सिमरन का जाप करने लगे एक तो मुंह मांगी मुरादे पाते थे और दूसरा आसान मार्ग देखते थे तीसरा इस तरह सब लोगों का भला होता था और गुरमत को ऊंचा समझते थे ब्राह्मण आदि सभ सिखी को अंगीकार करते थे, दसवंध देकर गुरु जी को कार भेंट अर्पण करते थे हजारों घर गुरु जी के सिख हो गए, वह देवतों की तरह हो गए, वहा पर एक सेवादास नामी ब्राह्मण रहता था उसका सिखी में महान सिदक था, बहुत बार कड़ा परशाद करवाता था और संगत का भारी मेल इक्कठा करता था गुरु जी का शब्द पड़ता और सुनता था और सत्संग करता था जब उसकी माता ने पुत्र को ऐसा करते हुए देखा तो उसके अंदर महान प्रेम परगट हो गया, जहां पर भी संगत की पंगत लगती थीं, ख़बर सुनकर तुंरत वहां पर पहुंच जाती थीं, सतगुरु जी के गुणों के बारे में सुनती थी कि गुरु जी सेवक का केवल प्रेम ही देखते है, धन आदि जो और वस्तुएं है उनको सुख दाते मन में नही मानते है, जो भी श्रद्धा करकर भावना धारण करे उस सेवक के दिल के प्रेम को पहचान लेते है, वह अपने पुत्र को पूछती रहती थीं की उनका कैसा सभाव है, हे सेवक दास ये मुझे बताओ, वह बहुत दूर बस्ते है, कैसे दर्शन देगें वह दासों का प्रेम जानते है या नही, दर्शनों के बिना मेरी तृप्ति नहीं हो रही जब मिलेंगे फिर संसे नही रहेंगे, तीनों लोगों के मालिक का सभाव है कि दासों के साथ हर जगह जाते है, उनके कितने गुण गिने जाए, भगतों के कार्ज वह फिर फिर कर करते है, सतगुरु जी इस प्रभु के अवतार है अपने सिखों के कार्ज सुधारने वाले है, श्री गुरु नानक देव जी गुरु हुऐ है वह अपने सिखों का प्रेम देखकर मिलने के लिए गए थे, सभ जगहों से साफ़ फ़रमान सुनने को मिलता है, संग्लादीप भी गए थे जब राजे का प्रेम देखा तो उसके डेरे में पहुंच कर उसको निहाल किया, मैं भी उसी तरह सतगुरु को याद करती हूं, दर्शनों के लिए अंदर प्रेम धारण किया है जब सेवा दास पुत्र ने कानों से सुना और कहां कि अगर हमारे महान भाग है, जब भी वह हमारे अंदर के प्रेम को जान जाएंगे उस दिन ही दर्शन देने के लिए पहुंच जायेंगे, इस तरह महानता को सुनते हुए उसने गुरु जी के दर्शनों की प्रीत धारण कर ली, निता प्रति गुरु जी के गुणों पर विचार करती थी, दर्शनों के लिए अपने अंदर प्रेम धारण करती थी फिर उसने एक नया ही उपाये किया, दुर्लभ रूई बहुत बड़ी मात्रा में खरीद ली, अपने हाथों के साथ बुन कर और चुन चुन कर उसको सुधार दिया, फिर गुरु जी के गुण गाती बहुत ही ब्रीक सूत बनाती थीं, एक समान करके वट चढ़ाती, चर्खा कत कर सूत बनाती थीं फिर बड़े प्रेम के साथ सूत को अटेरती थीं और दिन रात गुरु जी के दर्शनों की अभिलाखा करती थी कि हे प्रभु अब मैं बहुत बूढी हो गईं हूं अब मैं चलने के समर्थ नहीं हूं, पहाड़ों का पेंडा तो बहुत लंबा पैंडा है, बहुत ऊंचा स्थान दिखाई देता है, नही तो मैं चलकर अमृतसर आ जाती अपने हाथो से आपको वस्त्र पहनाती, हे मालिक शक्ति हीन हुं कैसे चलूं हे अंतर्जामी जी आप हर जगह व्यापक हो और सब के दिलों की जानते हों, अपने सेवक की कामना पूरी करो, मेरे प्रेम को देखकर मेरे पास आ जाओ, शास्त्र, वेद और धर्म ग्रंथो में सुना है कि आप जी का धर्म बहुत उधार है, इस प्रकार चित में सोचती और विचारती रहती थी और वस्त्र बनाने की किरत करती रहती थी, फिर जुलाहे के घर चलकर गई, कपड़ा बनाने के लिए उसको सूत दिया और उसको ज्यादा मजदूरी देकर मुख से मीठे वचन किए, अत नर्म कपड़ा बनाने का मेरा कार्ज है, अगर आप इसे अच्छा बना दोगे तो आपका बड़ा उपकार होवेगा, बहुत बार कहकर बहुत सुंदर कपड़ा बनवाया और फिर बहुत मेहनत देकर कपड़े को धुलवाया, घर में एक स्थान को अच्छी तरह साफ़ किया और अपने अंदर गुरु जी को धारण कर कल्पना की, दिया जलाकर वहां पर वह सुगंधित फूल अर्पण किया करती थीं, घी का दिया जलाती थीं और चंदन छिड़क कर उसकी महक का छिड़का करती थीं, वहां पर एक चौंकी बनाई गईं, पवित्र करकर नई बनाई गईं उसके उपर एक सुंदर वस्त्र सुधार कर बिछाया गया और सुंदर फूल उसके ऊपर खिलारे गए, सतगुरु वांग वदना करकर उसकी पूजा करती थी, दीन ब दिन बहुत श्रद्धा बड़ती जाती थी, सामने खड़ी होकर बेनती करती थी और हित धारण कर भेंट अर्पण करती थी, दोनों समय पूजा करती थी और हित में श्रद्धा धारण करती थी, हाथ जोड़कर दिल में आराधना करती थी कि हे श्री गुरु अर्जन देव जी के सपुत्र, श्री गुरु हरगोबिंद जी मेरी आशा पूरी करो, मुझे आप जी के चरण कवलो का ही भरोसा है, मैने मैली इस्त्री का जामा पाया है फिर भी आपके नाम का आसरा लिया है, पुत्र समेत भाग परी दोनों श्री हरगोबिंद जी को नमस्कार करती थी और मनुष्य सुनकर उसका मज़ाक उड़ाते थे और कहते थे कि हे सेवा दास तेरे माता जी ने वस्त्र बना कर यहां पर रखा है कि गुरु जी अभिलाषा धारण कर हमारे नगर में आयेगे, उनका आना कैसे संभव हो सकता है उनके साथ तो बहुत बड़ी फ़ौज है, आने के लिए बहुत कठिन मार्ग है बहुत दूर है, बिलकुल भी नजदीक नहीं है, एक श्री गुरु नानक देव जी ही सभी देशों में गए है दूसरे गुरु साहिबान तो अपने देश में ही रहते रहें है वह परदेशों में नही गए, सारी संगत उनके पास ही चलकर जाती थीं, इस देश में आना मुश्किल है कि अपनी सेना समेत इस देश में आकार सतगुरु इस देश को पवित्र करें, बडे़ प्रेम के साथ कपड़े बनवाएं है उनको गुरु जी के स्थान पर ही भेज दे, सेवा दास ने भी बहुत समझाया की हठ छोड़ दो कपड़े वहां पर ही भेज दो, वह कहने लगें बहुत लोग मुझे समझाते है फिर बताओ गुरु जी का यहां पर आना कैसे संभव होगा, श्री गुरु नानक देव जी के बिना यहां पर और कोई नही आया, गुरु जी के साथ बहुत बड़ी सेना शोभ रही है, गुरू जी का ध्यान धारण कर सिमरन करो जेसे हजूर को मिलकर फल प्राप्त करना है वैसा ही फल प्राप्त करो, तो भाग परी ने जब अपने पुत्र के वचन सुने तो उनकी आंखों में प्रेम के आंसू आ गए, तो वह अपने पुत्र को कहने लगी की हे पुत्र सुनो मैने अपनी सारी उम्र ऐसे ही व्यतीत कर दी है अब मेरे अंदर गुरु जी के दर्शनों की इच्छा हुई है, मरने से पहले मैने गुरु जी के दर्शनों की आस लगाई है, मन में गुरु जी को धारण कर सिमरन करती हूं, अंतर्यामी गुरु जी सभ जगह व्यापक है, संपूर्ण शक्ति धारण कर सभ जगह परगट होते है और अपने सिखों के दुख दूर करते है उनका आना मुश्किल नही और कोई ऐसा स्थान नही यहां पर वह चलकर नही जा सकते, मन में ऐसा तरक करने से निश्चे हिरदे में टिकता नहीं है वह जब मेरी हालत देखेंगे तो उसी समय गरीबों की सहायता करने वाले अपने धर्म को संभाल लेंगे, वे शिन में आकर दर्शन दे जाएंगे और मेरे हाथों से वस्त्र पहनेंगे, एक भिलनी हरि की भगत थीं वह भी श्रद्धा धार कर इंतजार करती रही, बेरी के फल इक्कठे करती रही, मुझे प्रभु यहां आकर मिलेंगे, ऐसा शास्त्रों में कहा गया है मैं उनकी तरह इंतजार कर रही हूं , वे मेरे श्रेष्ठ प्रेम को देखेंगे और मुझे दर्शन देगें वे निश्चित रूप से आएंगे और मुझसे मिलेंगे, मुझे पूरा विश्वास है, मुझे पूरी आस है, मै जीते जी आस नही छोड़ सकती, नही तो मर कर मिल जाऊंगी, मैं अपनी प्रतिज्ञा कभी नही छोड़ सकती, उधर श्री गुरु हरगोबिंद जी ने भाग परी के बारे में सारी बात अपने अंदर जान ली और कहा कि दिन रात मेरा इंतजार करती है और मन में सुख नही है, पहाडी देश का रास्ता है मेरी सिखनी रोज मेरे दर्शनों की चाहत रखती है, पहाड़ों में बहुत सिख रहते है जो मेरे दर्शन करना चाहते है मेरे पास आना चाहता है, मैं उन सभी की आशाओं को पूरा करता हूं जो हमेशा मेरे भरोसे पर रहते हैं, विर्ध भाग पुरी ने कपड़ा बुन कर रखा है और उसके अंदर मुझे वस्त्र पहनाने की अभिलाषा है वह बहुत कम खाती पीती है और दिन रात सिमरन करती रहती है, अब उसका अंत समय भी आ गया है, मेरे दर्शन करने की नित रुचि रखती है, श्री गुरु हरगोबिंद जी, जो कुल चंद्रमा हैं, उन्होने कहा कि हमे जल्दी से जल्दी चलना चाहिए और माता गंगा जी को नमस्कार करना चाहिए, तो सतगुरु ने अपनी सेना को साथ लिया और सभी का सम्मान किया और सेवकों को अपने साथ लेकर चल पड़े जो सिख पहाड़ों के वासी थे जब उनको श्री गुरु हरगोबिंद जी के आने का पता लगा तो वह सुंदर भेटें लेकर आए और गुरु जी के दर्शन कर प्रसन्न हों रहें थे, खान वाले उचित और स्वादिष्ट फल लेकर आते थे और रस वाले फलों को गुरु जी के लिए लेकर आते थे, इस तरह गुरु जी चलते चलते विशाल नगर के पास वहां पर पहुंचे, गुरुजी ने श्रीनगर शहर में प्रवेश किया और सतगुरु उस दरवाजे में दाखिल हुए जिस घर में उनके सेवक का घर था और सतगुरु उस स्त्री की आस पूरी करने के लिए वहां पर जा पहुंचे, उस घर के दरवाजे के बाहर जाकर खड़े हो गए जहां पर उनका हितकारी सिख सेवावदास था तो घोड़ों की खड़क सुनकर सेवादास घर के दरवाजे के बाहर आ गया तो जब उसने अपने सामने श्री गुरु हरगोबिंद जी को खड़े देखा जिन्होंने हाथ में बड़ा नेजा पकड़ा हुआ था तो उसने गुरु जी के चरणों पर प्रणाम किया और आनंद पूर्वक हो उठा और कहने लगा कि आज मेरी दर्शनों की प्यास पूरी हो गई है अंदर आपके दर्शनों की बहुत प्यास लगी हुई थी तो उसने गुरु जी को अपने साथ लिया और अपने घर के अंदर चला गया उसने सुंदर पलंग निकाला और सतगुरु को वहां पर बैठाया और अपनी माता को खुशी की खबर सुनाई और कहां की हे बड़े ! भागोवाली, जिनकी तू उड़ीक का कर रही थी जिन के दर्शनों की तेरे अंदर प्यास लगी थी वह तेरे पास चलकर आ गए है उनका नाम सिखों का सखा प्रकट है और तेरा नाम भाग परी शुभ हो गया है तो वह अपने पुत्र का हाथ पकड़कर सतगुरु के पास आई और एक सार सतगुरु को देखने लगी, वह दर्शन करकर गद गद हो गईं उससे बोला नही जा रहा था, उसके बोल उसके गले में ही उलझे रह गए, वह धीरे धीरे सतगुरु के पास गई तो उसने अपने दोनों हाथो से गुरु जी के चरण कवलों को पकड़ लिया, सिर धरती पर रखकर माथा टेका और फिर सुंदर सवरूप को देखने लगीं, तो गुरु जी ने अपने वर्षे को नज़दीक रख दिया और विराजमान हो गए तो कुछ समय का धीरज धार कर वह बोली कि मैंने यह सुना था कि जिसकी भी सतगुरु से लगन लग जाती है उसका अपने गुरु के दर्शनों के साथ प्रेम पड़ जाता है और दूसरे रस दूर हो जाते हैं उसको फिर निश्चय प्राप्त हो जाता है जगत में यह बात सब जग कहता है यह बात अब मैंने पृथक कर ली है हे सतगुरु जी ! अब मैंने आपके दर्शन किए हैं मैं आपसे बलिहारी जाती हूं उसने जो बड़ी माला अपने हाथों से बनाई थी वह सतगुरु को डाल दी, मैं अपने घर में आपकी पूजा करती हूं और जहां पर आपका स्थान बना हुआ है वहां पर हर रोज सफाई कर कर आपको हार चढ़ाती हूं मेरी यह पूजा सफल हो गई है अब मैंने आपके दर्शन कर लिए हैं तो ये सुनकर सतगुरु भोले की तुमने महान प्रेम किया है और मेरे लिए सुंदर वस्त्र बनाए है और सत्गुरु ने कहा कि उन कपड़ों को पहनने के लिए मैं यहां पर चलकर तुम्हारे पास आया हूं तो माई भाग परी ने चित में हैरान होकर और प्रसन्न होकर कहा कि यह बात मैंने आप में आश्चर्य नहीं देखी है आप सदा ही ऐसा करते रहे हो आप कभी भी जात विजात नहीं विचार करते हो आप स्त्री, पुरुष धन यह सब नहीं देखते हों और जिसके हृदय में प्रेम होता है आप उसको परख लेते हो, नहीं तो मैं माडी मतवाली मलिन हूं लेकिन आप पहाड़ों के इतने पैंदे चल कर मेरे पास मुझे दर्शन देने के लिए आए हों आप अपने सिखों की प्रवाह करते हो, संगत की परवाह करते हो और आपने मुझे दर्शन देकर निहाल किया है एक गरीब को अपनी कृपा के रस के अंदर रंगा है आप जी की उस्तत्त में कैसे बयान करूं मैं थोड़ी मतवाली इतना भी नहीं जानती, पापियों को तारने वाला आपका नाम है आप प्रेम देखते हो फिर चाहे वह नर हो या फिर नारी आपके स्वभाव की गति बहुत अच्छी है इसको मैंने अच्छी तरह से विचारा है आप नो निधियां और अट्ठारह सिद्धियां के मालिक हो और सभी को पोशाके बक्शते हो आप मेरे बनाए हुए वस्त्र जो कि इतनी अच्छी नहीं है उसको स्वीकार करने के लिए इतनी दूर मेरे पास चलकर आए हो मेरी दर्शनों की प्यास बुझाने आए हो तो उसने ऐसा कहकर सतगुरु के इर्द गिर्द परिक्रमा की, वह एक रस होकर गुरुजी को देख रही थी और उसकी दर्शनों की प्यास अभी तक खत्म नही हुई थी तो वह अंदर जाकर उन वस्त्रों को लेकर आई जिसके ऊपर बहुत सुगंधी का छिड़काव किया हुआ था उसने वह सतगुरु के आगे रख दिए और हाथ जोड़कर बंदना की तो उसने तुरंत दर्जी को अपने पास बुलाया और गुरु जी ने अपना मेचा देने के लिए दर्जी को कहा तो उस माई ने दर्जी को कहा कि इन वस्त्रों को अच्छी तरह बनाओ ताकि गुरुजी इसको पहने और हमारा यह जन्म सफल हो इस तरह कह कर उसको सिलने के लिए कह दिया और पास बैठकर सिलवाया, तो फिर वीर्ध माई ने गुरुजी के चरण कमलों को धुला और जब उस जल को अपने मुख में डाला तो दिव्य दृष्टि हो गई उसने अपना वास्तव आतम रुप जाना और अंतर्मुखी ध्यान होकर संपूर्ण आनंद प्राप्त किया, जैसे कोई सैकड़ों सालों तक योग करें वैसे वह उन लोगों तक पहुंचने के काबिल हो गई तो फिर उसने उस जल का अपने घर में छिड़काव किया और उस जल को अपने पुत्र सेवादास को भी सेवन करवाया और वहां पर डेरा करवाया और सभी तरह की वस्तुएं वहां पर पहुंची, साध संगत जी माई भाग परी ने अपने हाथों से सतगुरु की सेवा की, तो उस समय पूरे कश्मीर में गुरु जी के आने की खबर फैल गई थी इस खबर को वह अपने कानों से ऐसे सुनते थे जैसे कि उन्होंने अमृत पिया हो, ये सुनकर सिख बहुत प्रसन्न हो रहे थे, अलग-अलग जगह से इकट्ठे होकर सिख सतगुरु के दर्शनों के लिए आ रहे थे तो जब सुबह हुई तो सभी वहां पर पहुंच गए और बहुत मीठे फल लेकर सतगुरु को अर्पण कर रहे थे और आनंद पूर्वक सतगुरु के दर्शन कर रहे थे और कह रहें थे कि जब सतगुरु हमारे लाए हुए फल सरवन करेंगे तो हमारा जीवन सफल हो जाएगा, गुरुजी सिक्खों की कामनाएं पूरी कर रहे थे और सुंदर फल ग्रहण कर रहे थे इस तरह वृद्ध माता ने जामा त्यार करवाया और अपने हाथों से गुरु जी को पहनाया, सतगुरु की शोभा देखकर माता अपने पुत्र समेत बहुत आनंद पूर्वक रही और कहने लगी कि हमारे गरीबों के घर गुरु जी आए हैं जिनकी देवता और मनुष्य इक्कठे होकर सेवा करते हैं, तो सारी संगत में यह बात फैल गई कि जो वृद्ध माता ने अपने हाथों से वस्त्र बनाया था, सतगुरू उसे पहनने के लिए इतनी दूर से चलकर उसके पास आए हैं वह जामा अब गले मे डलवा दिया है, तो यह सब देख सभी लोग माई पर बहुत प्रसन्न थे और कहने लगे की धन गुरु जी है और धन उनके गुरसिख है जिनके अंदर अपने गुरु के लिए प्रेम पैदा हुआ है इस तरह वहां पर सतगुरु की बहुत कीर्ती हुई और संगत ने सतगुरु के दर्शनों का आनंद प्राप्त किया, साध संगत जी आज के प्रसंग की यही पर समाप्ति होती है प्रसंग सुनाते हुई अनेक भूलों की क्षमा बक्शे जी ।

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By Sant Vachan


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