परमात्मा ने 'नाम' का खजाना 'संतो' के हवाले कर दिया है, जब परमात्मा किसी जीव को इसका 'दान' देना चाहता हैतब वह उसे संतों की संगति देता है ताकि वह 'सच्चे-गुरु' को पाकर 'नामदान' प्राप्त कर सके, संत हमें अपनी आंतरिक आंख और आंतरिक कान खोलने के लिए कहते हैं जो केवल 'दिव्यशब्द' की कमाई से ही हो सकता है, लेकिन हम सांसारिक कारोबार में इतने डूबे हुए हैं कि उनकी पुकार को अनसुनी कर देते हैं ।
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