केवल नाम पा लेने से ही कोई सत्संगी नहीं बन जाता, सत्संगी को अपने जीवन को संतमत के साँचे में डालना चाहिए, उसका हर एक विचार, वचन और कर्म संतमत के उसूलों के अनुसार होना चाहिए,
कथनी से करनी ज्यादा जरूरी है, विचारों की शक्ति तो और भी अधिक है, सत्संगी का रोज का जीवन और रहन-सहन बहुत साफ और ऊंचे दर्जे का होना चाहिए, उसकी रहनी से ही यह जाहिर होना चाहिए कि वह पूरे सतगुरु का शिष्य है ।
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