"सीस बड़े घर बहसन दीजे विन सिर सेव क्रीजे" सीस जो हंकार है उसको दूर करके बैठने के लिए जगह दे और बिना हंकार रूपी सिर के सेवा करिए एक शाहुकार बहुत बड़ा धनी था
उसके घर स्भाविक पुत्र था सो सदा ही पिता के कहे अनुसार चलता था जब शाहुकार मरने लगा तो पुत्र हाथ जोड़कर कहने लगा हे पिताजी कुछ शिक्षा दो तब उसके पिता ने कहा हे पुत्र सारी राजनीति का सार है जो है सो मैं तुम्हे सुनाता हूं सो जेकर तुम उस पर चलोगे तो सदा ही सुखी रहोगे सो नसीहते यह हैं पहला भोजन मीठा खाना, दूसरा धूप में नहीं चलना, तीसरा कर्जा देकर नहीं मांगना, तो चौथी है जेकर धन की जरूरत पड़े तो स्वा पहर दिन चढ़े मसीत के नीचे से पुटकर खजाना निकालकर ले लेना अभी इन चारों बातों का सिद्धांत अथवा अर्थ शाहुकार ने पुत्र को नहीं बताया था कि जुबान बंद हो गई और मर गया पुत्र ने उसके अर्थ के अनर्थ समझकर जो बाहर के अर्थ प्रतीत होते थे वह धारण कर लिए अर्थात रोज ही कड़ा प्रसाद कर करके खाने लगा तो जिन बाजारों में से निकलता था सभी चनिन्यो से तान दी जो शाए में ही चलता रहे जब बारिश तूफ़ान के साथ जल्दी फट जाए तो और बना ले इस तरह बहुत धन खर्च किया तो कर्ज जिसको दे किसी से ना मांगे इसलिए उसको कोई देने भी ना आए धीरे-धीरे सारा धन खत्म हो गया फिर तंग होकर मसीत को खोदने लगा जब मसीत पुटने लगा तो मुसलमान लोग इकट्ठे हो गए तो उसको बंद कर दिया पर जब वह नहीं माना तो मुसलमानों ने उस शाहुकार के पुत्र को बहुत मारा किसी हिन्दू ने भी मदद नहीं की क्योंकि मामला मज्वी था ओड़क चोट खाकर घर आकर लेट गया तो टकोरे करने लगा सुभब के साथ इसके पिता मित्र एक शाहुकार जो दूसरे देश में रहने वाला था इस शहर में आया तो इस शाहुकार का नाम पूछा तो लोगों ने कहा कि वो तो कालवस हो गए हैं और जो उनका पुत्र है वह अभी जीवित है पर मोएयो से भी परले पार हैं क्योंकि वह सारा धन गवा के अब मार खाता फिरता है शाहुकार के मित्र ने मन में कहा वो इतना बड़ा शाहुकार था जिसका धन कई पुश्तों तक भी मुकने वाला नहीं था कारण क्या हो गया जो इतनी जल्दी कंगाल हो गया चलकर मिलकर उसको पूछते हैं तब वो शाहुकार का मित्र इस शाहुकार के पुत्र के पास आया तो आकर उससे दुख पाने का कारण पूछा तब शाहुकार के पुत्र ने अपना सारा हाल जो कुछ शुरू से आखिर तक गुजरा था वह बोलकर सुनाया तो अपने पिता की शिक्षाएं भी सुनाई तो कहा इन शिक्षाएं ने ही मुझे इस दुर्गति तक पहुंचाया है शाहुकार के मित्र ने जब सारा हाल सुना तो शाहुकार के पुत्र को कहा यह तुम्हारी भूल हुई है जो तुम इन बातों के अंतरीव भाव को नही सोचा तो जो बाहर के अर्थ थे उनके ऊपर ही भूले रहे इसी कारण तुमने इतना दुख पाया इन शिक्षाएं का असल भाव यह है जो मैं आपको अब बताने लगा हूं पहले जो तुम्हारे पिता ने यह कहा कि मीठा खाना तो इसका मतलब यह था कि जब अच्छी तरह भूख लगे तब खाना क्योंकि भूख समय जो खाया जाए वो स्वादी होता है, दूसरा जो शाए में चलने को कहा था सो यह मतलब था कि सूरज से पहले हट्टी पहुंच जाना और सूरज शिप्पे पर हट्टी से घर को आना अर्थात दिन की धूप से बचे रहना, तीसरा जो यह कहा कि कर्जा देकर किसी से मांगना नहीं इसका यह मतलब था कि जिसको कर्ज़ा देना उससे जेवर रखवा लेना अथवा कोई और चीज गिरवी रख लेनी, तब देना बिना चीज़ रखने के बिल्कुल ना देना, और चौथा जो मसीत के नीचे से स्वा पहर दिन चढ़े पर खजाना पुटने को कहा सो जिस वक्त स्वा पहर दिन चढ़े तुम्हारे घर में मसीत की परछाई पड़े उस जगह को खोदो धन की प्राप्ति होगी दूसरे दिन जब शाहुकार के पुत्र के घर में मसीत की परछाई पड़ी तो वहां से खोदना आरंभ किया अभी थोड़ा ही खोदा था कि उस के नीचे से बेअंत धन और खजाना निकला जिसको ले करके वो शाहुकार लड़का अपने पिता की बताई शिक्षाओं पर चलने लगा तो थोड़े समय में फिर उसी प्रकार ही बहुत बड़ा शाहुकार बन गया सो साध संगत जी इस साखी का तात्पर्य यह है कि जिस तरह शाहुकार के वचनों का परतख अर्थ और था और अंतर भाव और था इसी प्रकार यहां पर अक्षरों का अर्थ और है पर अंतरीव भाव सीस काटने का हंकार की निवृत्ति में है अर्थात हमें निर अभिमान होकर सेवा करनी चाहिए श्री कबीर जी एक दिन अपने ध्यान में बैठ रहे थे कि एक सिख जो इनकी बड़ी सेवा करता था पास आकर पूछने लगा महाराज जी हरि के जो सेवक हैं उनके क्या लक्षण हैं इस सेवक को अपनी सेवा का बड़ा अभिमान था और वह चाहता था जो सभी के रूबरू मेरी बड़ी सलाता हो तो कबीर जी से पूछने का भी इसका यही प्रयोजन था कि कबीर जी कह दे कि जैसा तू है ऐसे ही हरि के सेवक होते हैं कबीर जी उसकी अंतर की बात को समझ गए और कहने लगे कि सेवक निर अभिमान होना चाहिए अर्थात आप ग्वाइए तो सो पाइए अपना हंकार जो ग्वावे सो हरि सेवक हो सकता है और उसका बड़ा दर्जा है यह सुनकर अभिमानी सेवक ने कहा भला जी जेकर रास्तों के रोड़े जैसे निमाने हो रहिए अर्थात हर एक के पैरों के नीचे रहिए तो परमात्मा के सेवक हो सकता है यह सुनकर कबीर जी ने कहा भाई कबीर रोड़ा हुआ तो क्या भैया पंथी को दुख दे जेकर रोड़ा हो जाएगा तो क्या बना लेगा जब कि राहियो के पैरों में चुभ कर दुख ही देगा तब अभिमानी सेवक ने कहा भला जी तुम्हारे हिसाब ऐसा तेरा दास है जो तरनी में खेह मिट्टी खेह बन जाईए तब अच्छा है तब श्री कबीर जी ने फरमाया कबीर खेह होई तो क्या भैया जो उड़ लागे अंग जेकर खेह हो गई तो भी क्या फायदा है जब लोग चलते हैं तो उड़-उड़ कर कपड़ो पर अथवा शरीर पर धूल पड़ती है इसलिए खेह बनने से भी हरि के सेवक नहीं बन सकते तो अभिमानी सेवक ने कहा "हर जन ऐसा चाहिए जो पानी सरबंग" जेकर पानी जैसे कोमल स्वाभ बन जाइए अर्थात पानी को चाहे कहीं पर भी वर्त लो सबको मदद दे देगा अपना आप कुछ नहीं बनाएगा जेकर मीठे में डाल दो तो मीठा जेकर कड़वे में डाल दो तो कड़वा हो जाता है इसी तरह जेकर सेवक बन जाए तब तक ठीक हरि का रूप हो सकता है कि नहीं इस पर कबीर जी ने कहा कबीर पानी हुआ तो क्या भैया सिर्रा ता ता होए जेकर पानी भी हो गया तब भी कहा है कभी गर्म होता है और कभी सर्द होता है अर्थात सर्दी की बहार में पानी के नजदीक टुकना भी पाप मालूम होता है तो पानी भी हरि के सेवक का दर्जा नहीं ले सकता जब कबीर जी ने इस प्रकार उस अभिमानी सेवक की सारी बातों का खंडन कर दिया तब सेवक ने कहा फिर आप ही बता दो की हरि का सेवक कैसा होना चाहिए तो श्री कबीर जी ने फरमाया हर जन ऐसा चाहिए जैसा हर ही हुए भाई सिखा हर का जो जन है उसको हरि परमात्मा जैसे गुण धारण करने चाहिए क्योंकि हरि तो हरि के सेवकों में कुछ भेद नहीं "ज्यों जल तरंग उठे बहुभाती फिर सल ले सल समाए दा" इसलिए गुरु जी ने कथन किया है "कि हरि का सेवक सो हरि जेहा"
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By Sant Vachan
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