रागु गोंड बाणी नामदेउ जी की घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ असुमेध जगने ॥ तुला पुरख दाने ॥ प्राग इसनाने ॥१॥ तउ न पुजहि हरि कीरति नामा ॥ अपुने रामहि भजु रे मन आलसीआ ॥१॥ रहाउ ॥ गइआ पिंडु भरता ॥ बनारसि असि बसता ॥ मुखि बेद चतुर पड़ता ॥२॥ सगल धरम अछिता ॥ गुर गिआन इंद्री द्रिड़ता ॥ खटु करम सहित रहता ॥३॥ सिवा सकति संबादं ॥ मन छोडि छोडि सगल भेदं ॥ सिमरि सिमरि गोबिंदं ॥ भजु नामा तरसि भव सिंधं ॥४॥१॥
अर्थ :-अगर कोई मनुख असमेध जग करे, अपने साथ सावाँ तोल के (सोना चांदी आदि) दान करे और प्राग आदि तीरथों पर स्नान करे।1। तो भी यह सारे काम भगवान के नाम की, भगवान की सिफ़त-सालाह की, बराबरी नहीं कर सकते। सो, हे मेरे आलसी मन ! अपने प्यारे भगवान को सिमर।1।रहाउ। अगर मनुख गया तीर्थ पर जा के पित्तरों निमित पिंड भराए, अगर काँशी के साथ बहती असि नदी के किनारे रहता हो, अगर मुक्ख से चारे वेद (जुबानी) पढ़ता हो।2। अगर मनुख सारे कर्म धर्म करता हो, अपने गुरु की शिक्षा ले के इंद्रीओं को काबू में रखता हो, अगर ब्राहमणो वाले छे ही कर्म सदा करता रहे,।3। शिव और रामाइयण (आदि) का पाठ करता हो, हे मेरे मन ! यह सारे कर्म छोड़ दे, छोड़ दे, यह सब प्रभु से दूरी पाने वाले ही हैं। भक्त नामदेव जी कहते हैं, हे नामदेव ! गोबिंद का भजन कर, (भगवान का) नाम सिमर, (नाम सुमिरन करने से ही) संसार-सागर से पार निकलेंगा।4।1।
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