सोरठि महला १ ॥ जिसु जल निधि कारणि तुम जगि आए सो अम्रितु गुर पाही जीउ ॥ छोडहु वेसु भेख चतुराई दुबिधा इहु फलु नाही जीउ ॥१॥ मन रे थिरु रहु मतु कत जाही जीउ ॥ बाहरि ढूढत बहुतु दुखु पावहि घरि अम्रितु घट माही जीउ ॥ रहाउ ॥ अवगुण छोडि गुणा कउ धावहु करि अवगुण पछुताही जीउ ॥ सर अपसर की सार न जाणहि फिरि फिरि कीच बुडाही जीउ ॥२॥
जिस अमृत के खजाने की खातिर आप जगत में आये हो वह अमृत गुरु से प्राप्त होता है। धार्मिक भेस का पहरावा छोड़ो, मन की चालाकी भी छोड़ो, इस दो-तरफी चाल में पड़ने से यह अमृत-फल नहीं मिल सकता॥1॥ अगर तुम बहार ढूंढने निकल पड़े तो, बहुत दुःख पाओगे। अटल जीवन देने वाला रस तेरे घर में ही है, हृदये में ही है॥रहाउ॥ हे मेरे मन! (अंदर ही प्रभु के चरणों में) टिका रह, (देखना, नाम अमृत की खोज में) कही बहार भटकता न फिरना। अवगुण छोड़ कर गुण हासिल करने का यतन करो। अगर अवगुण ही करते रहोगे तो पछताना पड़ेगा। (हे मन!) तू बार बार मोह के कीचड़ में डूब रहा है, तू अच्छे बुरे की परख करना नहीं जानता॥2॥
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