वडहंसु महला १ छंत ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ काइआ कूड़ि विगाड़ि काहे नाईऐ ॥ नाता सो परवाणु सचु कमाईऐ ॥ जब साच अंदरि होइ साचा तामि साचा पाईऐ ॥ लिखे बाझहु सुरति नाही बोलि बोलि गवाईऐ ॥ जिथै जाइ बहीऐ भला कहीऐ सुरति सबदु लिखाईऐ ॥ काइआ कूड़ि विगाड़ि काहे नाईऐ ॥१॥ ता मै कहिआ कहणु जा तुझै कहाइआ ॥ अम्रितु हरि का नामु मेरै मनि भाइआ ॥ नामु मीठा मनहि लागा दूखि डेरा ढाहिआ ॥ सूखु मन महि आइ वसिआ जामि तै फुरमाइआ ॥ नदरि तुधु अरदासि मेरी जिंनि आपु उपाइआ ॥ ता मै कहिआ कहणु जा तुझै कहाइआ ॥२॥
राग वडहंस में गुरु नानक देव जी की बाणी ‘छंत’। अकाल पुरख एक है और सतगुरु की कृपा द्वारा मिलता है। शरीर (हृदय) को माया के मोह में गंदा करके (तीर्थ) स्नान करने का कोई लाभ नहीं है। केवल उस मनुख का स्नान कबूल है जो सदा-थिर प्रभु-नाम सिमरन की कमाई करता है। जब सदा-थिर प्रभु हृदय में आ बसता है तब सदा-थिर रहने वाला परमात्मा मिलता है। पर प्रभु के हुकम के बिना सोच ऊँची नहीं हो सकती, सिर्फ जुबान से (ज्ञान की) बाते करना व्यर्थ है। जहाँ भी जा कर बैठे, प्रभु की सिफत-सलाह करें तो अपनी सुरत में प्रभु की सिफत-सलाह की बाणी पिरोंयें। (नहीं तो) हृदय को माया के मोह में गंदा कर के (तीरथ) स्नान क्या लाभ? ॥੧॥ (प्रभु) मैं तब ही सिफत-सलाह कर सकता हूँ जब तूँ खुद प्रेरणा करता है। प्रभु का आत्मक जीवन देने वाला नाम मेरा मन में प्यारा लग सकता है। जब प्रभु का नाम मन में मीठा लगने लग गया तो समझो की दुखों ने अपना डेरा उठा लिया। (हे प्रभु) जब तुने हुकम किया तब मेरे मन में आत्मिक आनंद आ बसता है। हे प्रभु, जिस ने अपने आप ही जगत पैदा किया है, जब तूँ मुझे प्रेरणा करता है, तब ही में तेरी सिफत-सलाह कर सकता हू। मेरी तो तेरे दर पर अरजोई ही होती है,कृपा की नजर तो तूँ आप ही करता है॥२॥
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