रागु सोरठि बाणी भगत कबीर जी की घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ संतहु मन पवनै सुखु बनिआ ॥ किछु जोगु परापति गनिआ ॥ रहाउ ॥ गुरि दिखलाई मोरी ॥ जितु मिरग पड़त है चोरी ॥ मूंदि लीए दरवाजे ॥ बाजीअले अनहद बाजे ॥१॥ कु्मभ कमलु जलि भरिआ ॥ जलु मेटिआ ऊभा करिआ ॥ कहु कबीर जन जानिआ ॥ जउ जानिआ तउ मनु मानिआ ॥२॥१०॥
राग सोरठि , घर १ में भगत कबीर जी की बाणी। अकाल पुरख एक है और सतगुरु की कृपा द्वारा मिलता है। हे संत जनों। (मेरे) पवन (जैसे चंचल) मन को (अब) सुख मिल गया है, (अब यह मन प्रभु का मिलाप) हासिल करने योग्य थोडा बहुत समझा जा सकता है॥रहाउ॥ (क्योंकि) सतिगुरु ने (मुझे मेरी वह) कमजोरी दिखा दी है, जिस कारण (कामादिक) पशु अडोल ही (मुझे) आ दबाते थे। (सो, मैं गुरु की कृपा से सरीर के) दरवाजे (ज्ञान इन्द्रियां, पर निंदा, पर तन, पर धन आदिक ) बंद कर लिए हैं, और (मेरे अंदर प्रभु की सिफत-सलाह के) बाजे एक-रस बजने लग गए हैं॥१॥ (मेरा) हृदय-कमल रूप घड़ा (पहले विकारों के) पानी से भरा हुआ था, (अब गुरु की बरकत से मैंने वह) पानी गिरा दिया है, और (हृदय को) ऊँचा कर दिया है। कबीर जी कहते हैं, हे दास कबीर! (अब) कह कि मैंने (प्रभु के साथ) जान-पहचान कर ली है, और जब से यह साँझ पड़ी है, (मेरा मन (उस प्रभु में है) मस्त हो गया है॥२॥१०॥
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