सलोक मः ३ ॥ दरवेसी को जाणसी विरला को दरवेसु ॥ जे घरि घरि हंढै मंगदा धिगु जीवणु धिगु वेसु ॥ जे आसा अंदेसा तजि रहै गुरमुखि भिखिआ नाउ ॥ तिस के चरन पखालीअहि नानक हउ बलिहारै जाउ ॥१॥ मः ३ ॥ नानक तरवरु एकु फलु दुइ पंखेरू आहि ॥ आवत जात न दीसही ना पर पंखी ताहि ॥ बहु रंगी रस भोगिआ सबदि रहै निरबाणु ॥ हरि रसि फलि राते नानका करमि सचा नीसाणु ॥२॥
कोई एकाद फकीर फकीरी (के आदर्श) को समझता है, (फकीर हो कर) जो घर घर मांगता फिरता है, उसके जीवन को फिटकार है और उस के (फकीरी) जमे को फिटकार है। जो (दरवेश हो कर) आस और चिंता छोड़ दे और सतगुरु के सन्मुख रह कर नाम की भिक्षा मांगे, तो, हे नानक! मैं उस से सदके हूँ, उस के तो चरण धो धो के पिने चाहिए।१। गुरू नानक जी कहते हैं, हे नानक! (संसार रूप) वृक्ष है, (इस) को (माया का मोह रूप) एक फल (लगा हुआ है), (उस रुख ऊपर) दो प्रकार के, गुरमुख और मनमुख) पंछी हैं, उन पक्षियों के पंख नहीं हैं और वेह आते जाते दीखते नहीं, (भाव, यह नहीं पता लगता की यह जीव-पक्षी कहाँ से आते हैं और कहाँ चले जाते है) ज्यादा रंगों (के सवाद लेने) वाले ने विभिन्न रसों को चखा है और निर-चाह (पक्षी) शब्द में मगन रहता है। गुरू नानक जी कहते हैं, हे नानक! हरी की कृपा से (जिस के मस्तक पर) असल टिक्का है, वेह नाम के रस (रूप) फल के स्वाद में मस्त हैं।२।.
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