मेरा मनु राता गुण रवै मनि भावै सोई ॥ गुर की पउड़ी साच की साचा सुखु होई ॥ सुखि सहजि आवै साच भावै साच की मति किउ टलै ॥ इसनानु दानु सुगिआनु मजनु आपि अछलिओ किउ छलै ॥ परपंच मोह बिकार थाके कूड़ु कपटु न दोई ॥ मेरा मनु राता गुण रवै मनि भावै सोई ॥१॥
(परमात्मा के प्यार में) रंगा हुआ मेरा मन (जैसे जैसे परमात्मा के) गुण याद करता है (वैसे वैसे) मेरे मन में वह परमात्मा ही प्यारा लगता जा रहा है। परमात्मा के गुण गावने, मानो, एक सीढ़ी है जो गुरु ने दी है और इस सीढ़ी के द्वारा सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा तक पहुच सकता है, (इस सीढ़ी पर चड़ने की बरकत से मेरे अंदर) सदा-थिर रहने वाला आनंद बन रहा है। जो मनुख (इस सीढ़ी की बरकत से) आत्मिक आनंद में आत्मिक अडोलता में पहुचता है वह सदा-थिर प्रभु को प्यारा लगता है। सदा-थिर प्रभु के गुण गाने वाली उस की मति अटल हो जाती है। परमात्मा अटल है। (अगर गुण गाने वाली मति नहीं बनी, तो) कोई स्नान, कोई दान, कोई ज्ञानता, और कोई तीर्थ स्नान परमात्मा को खुश नहीं कर सकता। (गुण गाने वाले मनुख के मन में से) धोखा-फरेब, मोह के चमत्कार, विकार आदि सब ख़तम हो जाते है। उस के अंदर न झूठ रह जाता है, न ठगी रह जाती है, न मेर-तेर रह जाती है। (प्रभु के प्यार में) रंगा हुआ मेरा मन (जैसे जैसे प्रभु के) गुण गता है (वैसे वैसे) मेरे मन में वह प्रभु ही प्यारा लगने लग जाता है॥१॥
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