Guru Nanak Sakhi । ब्राह्मण ने गुरु जी के चमकते हुऐ पैरों को देखकर क्या कहा ?

 

साध संगत जी एक जग्गा नामक व्यक्ति थे जो ईश्वर में विश्वास रखते थे परमात्मा में विश्वास रखते थे तो एक दिन उन्हें गुरु की संगत में जाने का अवसर प्राप्त हुआ तो वहां जाकर उन्हें यह प्रतीत हुआ यह अनुभव हुआ कि ईश्वर ने हमें यह जन्म इसलिए दिया है ताकि हम अपना आवागमन का खेल खत्म करके वापिस उस प्रभु में उस मालिक में अभेद हो जाए उसके बाद उनके अंदर वैराग्य उत्पन्न हो गया और वह प्रभु के भजन कीर्तन में आनंदित रहने लगे उसका गुणगान करने लगे जिससे कि उन्हें लगा कि उनका 84 का खेल समाप्त हो जाएगा ।

लेकिन उनके मित्रों ने उन्हें बताया की भाई जग्गा बिना गुरु के परमात्मा नहीं मिल सकता गुरु धारण करके और गुरु से दीक्षा प्राप्त करकर ही परमात्मा को पाया जा सकता है तो ये सुनकर  भाई जग्गा सोच में पड़ गए और सोचने लगे कि यह बात तो ठीक कह रहे हैं अगर हमें कुछ भी सीखना हो तो हमें गुरु धारण करना पड़ता है तो यहां पर भी अगर सत्य का रास्ता पकड़ा है तो उसको समझने के लिए गुरु धारणा जरूरी है जिससे कि मेरी कामना पूरी हो जायेगी तो इस खोज के लिए वह पूर्ण सतगुरु की खोज में घूमने लगे तो घूमते घूमते उन्हें एक रास्ते में जोगी सन्यासी मिला जोकि सन्यास धारण करके वन में समय व्यतीत कर रहा था और द्वार द्वार जाकर लोगों से भिक्षा मांग रहा था तो जब भाई जग्गा की मुलाकात उस सन्यासी से हुई तो उसने भाई जग्गा जी को दुविधा में डाल दिया और कहने लगा कि अगर प्रभु की प्राप्ति चाहते हो तो तुम्हें सन्यासी होना पड़ेगा क्योंकि गृहस्थ व्यक्ति को प्रभु की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती तो ये वचन सुनकर भाई जग्गा जी को सतगुरु नानक की याद आ गई और उन्हें मालूम हुआ कि सतगुरु नानक भी पूर्ण संत सद्गुरु है और उन्होंने गृहस्थ जीवन में रहकर ही प्रभु की भक्ति करने का उपदेश दिया तो भाई जग्गा जी ने विचार किया कि क्यों ना सतगुरु नानक से मिलकर उनसे नाम दीक्षा ली जाए तो जब वह चल पड़े तो उन्हें मालूम हुआ कि सद्गुरु तो ज्योति ज्योत समा गए हैं क्यों ना उनके उत्तराधिकारी जो कि श्री गुरु अंगद देव जी है जो खड़ूर साहिब में मानव कल्याण हेतु कार्य कर रहे हैं उनसे मिला जाए तब भाई जग्गा जी ने उस नगर की तरफ प्रस्थान किया तो जब वह खड़ूर साहिब पहुंच गए तो श्री गुरु अंगद देव जी ने भाई जग्गा जी का स्वागत किया और सेवा करने के लिए कहा तो भाई जग्गा जी हुकुम पाकर सेवा करने में जुट गए और निष्काम सेवा के साथ हृदय में भजन भी करने लगे तो ऐसे बहुत समय बीत गया तो 1 दिन श्री गुरु अंगद देव जी महाराज जी ने लंगर में प्रस्थान किया और उन्होंने देखा कि भाई जग्गा जी तन मन से जल भरने की सेवा में लगे रहते हैं तो यह देखकर सतगुरु ने उन्हें अपने गले से लगाया और उपदेश किया कि जो व्यक्ति अध्यात्मिक प्राप्तियां चाहता है वह मानव सेवा में लग जाता है मानव कल्याण में लग जाता है और प्रत्येक प्राणी में उस प्रभु को देखने लगता है जब व्यक्ति के साथ ऐसा होने लगता है तो यह जान लो कि उसका हृदय पवित्र हो चुका है उसे कण-कण में प्रभु दिखाई देता है बस यह पहली मंजिल है उस प्रभु से मिलने की, फिर आगे प्राप्तियां होती ही जाएंगी यह सब गुरु नानक के घर का सहज मार्ग है इसमें कोई कठिनाई नहीं है न घर बार त्यागने की जरूरत है ना कोई कठिन साधना करनी पड़ती है ना नंगे रहना पड़ता है और ना ही भिक्षा मांगनी पड़ती है ना दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती है माया में रहते हुए माया से निर्लिप्त रहना पड़ता है जैसे कमल का फूल कीचड़ के पानी में रहते हुए भी उस में लिप्त नहीं होता तो सतगुरु के मुख से यह वचन सुनकर भाई जग्गा जी बहुत प्रसन्न हुए और भाई जग्गा ने अपनी शंका दूर करने के लिए सतगुरु से एक प्रश्न पूछा की हे सतगुरु जी ! जो लोग घर बार छोड़कर सन्यास धारण करते हैं सन्यासी जीवन जीते हैं क्या उनको हमसे अध्यात्म की अधिक प्राप्ति होती है क्या वह प्रभु के ज्यादा करीब है तो ये प्रश्न सुनकर सतगुरु ने उसे समझाया की प्राप्तियां वही होती है जहां प्रभु के नियम का अनुसरण करके उसके अनुकूल जीवन ढाला जाए जहां प्रकृति का विरोध होगा अथवा हठ होगा वहां ही विनाश होगा क्योंकि गृहस्थाश्रम प्रकृति का मार्ग है इसमें इसलिए सब कुछ फलीभूत होता है जो लोग सन्यास लेते हैं वह वास्तव में निखट्टू होते हैं अपनी जीविका का बार भी गृहस्ती ऊपर डाल देते हैं जिससे सामाजिक कठिनाइयां उत्पन्न होती है लेकिन अगर कोई सच्चा सन्यासी कुछ हासिल करता भी है तो वह अपनी उधर पूर्ति के बदले में सब कुछ ग्रहस्थितियों में बांट देता है स्वयं फिर वह वैसा का वैसा ही रह जाता है बिलकुल वैसे ही जैसे हम घास डाल कर गाय से दूध ले लेते हैं ऐसे ही उसे भोजन देकर गृहस्थी उससे अध्यात्मिक प्राप्तियां ले जाते हैं दूसरी ओर गुरु अमरदास जी सच्चे गुरु की तलाश में थे उनका प्रकाश जन्म जिला अमृतसर गांव बसआरके में 5 मई सन 1489 में पिता तेजभान और माता लक्ष्मी जी की कोख से हुआ उनका विवाह श्री देवी चंद जी की सुपुत्री राम कौर जी के साथ सन 1502 में संपन्न हुआ और उनकी चार संताने हुई क्रमश मोहन जी, मोहरी जी अथवा दो पुत्रियां दानी और मानी जी साध संगत जी सतगुरु अमरदास जी 40 वर्ष की आयु तक खेती बड़ी पर आधारित व्यवसाय करते रहे उसके बाद आप जी ने इस काम को अपने पुत्रों को सौंप कर अध्यात्मिक प्राप्ति के दृढ़ निश्चय से हरिद्वार गंगा स्नान करने जाना शुरू कर दिया यह कार्य लगभग 20 वर्ष तक चलता रहा तो एक बार यात्रा में उनको एक वैष्णव साधु मिला जो उनके काफिले में सम्मिलित हो गया उसको सतगुरु के स्वभाव में मिठास लगा और वह उनके निकटता प्राप्त कर उनके हाथ का बना हुआ भोजन ग्रहण किया, तो वापस लौटते समय उसने जिज्ञासा वर्ष सतगुरु से पूछ लिया कि आपका आध्यात्मिक गुरु कौन है तो इस प्रश्न के उत्तर में सतगुरु ने जवाब दिया कि मैंने अभी तक गुरु धारण नहीं की है ये सुनकर वैष्णव साधु चौक गया और उसने कहा कि मेरा धर्म भ्रष्ट हो गया मैंने एक गुरु हीन व्यक्ति का तैयार किया हुआ भोजन ग्रहण कर लिया है और वह अपने आप को कोसता हुआ वहां से चला गया इस घटना का श्री गुरु अमरदास जी के हृदय पर बहुत गहरा आघात हुआ वह विचार करने लगे कि मैंने जीवन के 60 वर्ष व्यर्थ में नष्ट कर दिए हैं क्या गुरु के बिना व्यक्ति की गति संभव नहीं, तो उसके बाद जब सतगुरु अपने दूसरे पड़ाव में मेहदे ग्राम नामक गांव मे दुर्गा ब्राह्मण की धर्मशाला में विश्राम कर रहे थे तो दुर्गा ब्राह्मण जो ज्योतिष विद्या का ज्ञान रखता था उन्होंने सतगुरु अमरदास जी के चरणों पर नज़र डाली तो वह चमक रहे थे तो जब उसने ध्यान दिया तो उसकी विद्या के अनुसार पदम रेखा थी जो कि किसी पराक्रमी पुरुष अथवा चक्रवर्ती सम्राट के पांव में होनी चाहिए तो सतगुरु के उठ जाने पर उस ब्राह्मण ने सद्गुरु से पूछा कि आप कौन है मेरी विद्या के अनुसार आप साधारण व्यक्ति नहीं हो सकते क्योंकि आपके चरणों में पदम रेखा है तो यह पूछने पर सतगुरु ने बताया कि वह साधारण पुरुष ही है तो ये सुनकर वह पंडित बहुत चकित हुआ और सोच कर कहने लगा कि ऐसा नहीं हो सकता मेरी विद्या गलत नहीं हो सकती यदि आप पराक्रमी पुरुष नहीं है तो जल्दी ही आपको कोई तेजस्व प्राप्त होने वाला है साध संगत जी आगे क्या हुआ यह जानने के लिए आप हमारे यूट्यूब चैनल को सब्सक्राइब कर लीजिए ।

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By Sant Vachan




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