ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ दूधु त बछरै थनहु बिटारिओ ॥ फूलु भवरि जलु मीनि बिगारिओ ॥१॥ माई गोबिंद पूजा कहा लै चरावउ ॥ अवरु न फूलु अनूपु न पावउ ॥१॥ रहाउ ॥ मैलागर बेर्हे है भुइअंगा ॥ बिखु अम्रितु बसहि इक संगा ॥२॥ धूप दीप नईबेदहि बासा ॥ कैसे पूज करहि तेरी दासा ॥३॥ राग गूजरी, घर ३ में भगत रविदास जी की बन्दों वाली बाणी। अकाल पुरख एक है और सतगुरु की कृपा द्वारा मिलता है। दूध तो थनों से ही बछड़े ने जूता कर दिया; फूल भवरे ने (सूंघ कर) और पानी मश्ली ने ख़राब कर दिय (सो, दूध पूल पानी यह तीनो ही जूठे हो जाने के कारन प्रभु के आगे भेंट करने योग्य न रह गए)॥१॥
हे माँ! गोबिंद की पूजा करने के लिए मैं कहाँ से कोई वास्तु ले के भेंट करूँ? कोई और (सुच्चा) फूल (आदिक मिल) नहीं (सकता)। क्या मैं (इस कमीं के कारण) उस सुंदर प्रभु को कभी प्राप्त न कर सकूँगा? ॥१॥रहाउ॥ चन्दन के पौधों को सर्प जकड़े हुए हैं (और उन्होंने ने चन्दन को जूठा कर दिया है), जहर और अमृत (भी समुन्दर में) इकठे ही बसते हैं॥२॥ सुगंधी आ जान कर के धुप दीप और नैवेद भी (जूठे हो जाते हैं), (फिर हे प्रभु! अगर तेरी पूर इन वस्तुओं से ही हो सकती हो, तो यह जूठी चीजें तेरे भक्त किस प्रकार तेरे आगे रख कर तेरी पूजा करें? ॥३॥
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