सलोकु मः ३ ॥ परथाए साखी महा पुरख बोलदे साझी सगल जहानै ॥ गुरमुखि होए सु भउ करे आपणा आपु पछाणै ॥ गुर परसादी जीवतु मरै ता मन ही ते मनु मानै ॥ जिन कउ मन की परतीति नाही नानक से किआ कथहि गिआनै ॥१॥ मः ३ ॥ गुरमुखि चितु न लाइओ अंति दुखु पहुता आए ॥ अंदरहु बाहरहु अंधिआं सुधि न काई पाए ॥ पंडित तिन की बरकती सभु जगतु खाए जो रते हरि नाए ॥
अर्थ: महापुरुष किसी के संबंध में शिक्षा के वचन बोलते हैं (पर वह शिक्षा) सारे संसार के लिए सांझे होते हैं, जो मनुष्य सतिगुरू के सन्मुख होते हैं, वह (सुन के) प्रभू का डर (हृदय में धारण) करते हैं, और अपने आप की खोज करते हैं (आत्म-विश्लेषण करते हैं)। सतिगुरू की कृपा से वे संसार में कार्य-व्यवहार करते हुए भी माया से उदास रहते हैं, और उनका मन अपने आप में पतीजा रहता है (बाहर भटकने से हट जाता है)। हे नानक! जिन का मन पतीजा नहीं, उनको ज्ञान की बातें करने का कोई लाभ नहीं होता।1। हे पंडित! जिन मनुष्यों ने सतिगुरू के सन्मुख हो के (हरी में) मन नहीं जोड़ा, उन्हें आखिर दुख ही होता है। उन अंदर व बाहर के अंधों को कोई समझ नहीं आती। (पर) हे पंडित! जो मनुष्य हरी के नाम में रंगे हुए हैं, जिन्होंने सतिगुरू के शबद के द्वारा सिफत सालाह की है और हरी में लीन हैं, उनकी कमाई की बरकति सारा संसार खाता है।हे पण्डित! माया के मोह में (फसे रहने से) बरकति नहीं हो सकती (आत्मिक जीवन फलता-फूलता नहीं) और ना ही नाम-धन मिलता है; पढ़-पढ़ के थक जाते हैं, पर संतोष नहीं आता और हर वक्त (उम्र) जलते हुए गुजरती है; उनकी गिला-गुजारिश खत्म नहीं होती और मन में से चिंता नहीं जाती। गुरू नानक जी स्वयं को कहते हैं, हे नानक! नाम से वंचित रहने के कारण मनुष्य काला मुँह ले के ही (संसार से) उठ जाता है।2।हे प्यारे हरी! मुझे गुरमुख मिला, जिनको मिल के मैं तेरा राह पूछूँ। जो मनुष्य मुझे हरी मित्र (की खबर) बताए, मैं उससे सदके हूँ। उनके साथ मैं गुणों की सांझ डालूँ और हरी का नाम सिमरूँ। मैं सदा प्यारे हरी को सिमरूँ और सिमर के सुख लूँ।मैं सदके हूँ उस सतिगुरू से जिसने (परमात्मा की) समझ बख्शी है।12।
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