सोरठि महला ३ ॥ भगति खजाना भगतन कउ दीआ नाउ हरि धनु सचु सोइ ॥ अखुटु नाम धनु कदे निखुटै नाही किनै न कीमति होइ ॥ नाम धनि मुख उजले होए हरि पाइआ सचु सोइ ॥१॥ मन मेरे गुर सबदी हरि पाइआ जाइ ॥ बिनु सबदै जगु भुलदा फिरदा दरगह मिलै सजाइ ॥ रहाउ ॥ इसु देही अंदरि पंच चोर वसहि कामु क्रोधु लोभु मोहु अहंकारा ॥ अम्रितु लूटहि मनमुख नही बूझहि कोइ न सुणै पूकारा ॥ अंधा जगतु अंधु वरतारा बाझु गुरू गुबारा ॥२॥
(गुरु) भक्त जनों को परमात्मा की भक्ति का खज़ाना देता है, परमात्मा का नाम ऐसा धन है जो सदा कायम रहता है। हरी-नाम-धन कभी खत्म होने वाला नहीं, यह धन कभी नहीं खत्म होता, किसी से इस का मूल्य भी नहीं आँका जा सकता (भावार्थ, कोई मनुख इस धन को दुनिया के पदार्थों से खरीद नहीं सकता)। जिन्होंने यह सदा-थिर हरी धन प्राप्त कर लिया, उनको इस नाम-धन की बरकत से (लोक परलोक में) इज्जत मिलती है॥१॥ हे मेरे मन! (गुरु के शब्द के द्वारा ही परमात्मा मिल सकता है। शब्द के बिना जगत कुराह पड़ा भटकता रहता है, (आगे परलोक में) प्रभु की दरगाह में दंड सहता है॥रहाउ॥ इस सरीर में काम, क्रोध, लोभ, मोह अन्धकार के पञ्च चोर बसते हैं, (यह) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-धन लूटते रहते हैं, परन्तु, अपने मन के पीछे चलने वाले मनुख यह समझते नहीं। (जब सब कुछ लुटा कर वह दुखी होते हैं, तो) कोई उनकी पुकार नहीं सुनता कोई उनकी सहायता नहीं कर सकता)। माया के मोह में जगत अंधों वाली करतूत करता रहता है, गुरु से भटक कर (इस के आत्मिक जीवन के रस्ते में) अँधेरा हुआ रहता है॥२॥
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