ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आपणे पिर कै रंगि रती मुईए सोभावंती नारे ॥ सचै सबदि मिलि रही मुईए पिरु रावे भाइ पिआरे ॥ सचै भाइ पिआरी कंति सवारी हरि हरि सिउ नेहु रचाइआ ॥ आपु गवाइआ ता पिरु पाइआ गुर कै सबदि समाइआ ॥ सा धन सबदि सुहाई प्रेम कसाई अंतरि प्रीति पिआरी ॥ नानक सा धन मेलि लई पिरि आपे साचै साहि सवारी ॥१॥
राग वडहंस में गुरु अमरदास जी की बाणी 'छंत'। अकाल पुरख एक है और सतगुरु की किरपा के साथ मिलता है। हे माया के मोह में अछोह हो चुकी जीव-इस्त्री! तू शोभा वाली हो गयी है, क्योकि तू अपने पति-प्रभु के प्रेम रंग में रंगी गयी है। गुरु के शब्द की बरकत के साथ तू सदा-थिर रहने वाले प्रभु में लीन रहती है, तुझे तेरे इस प्रेम प्यार के कारण प्रभु-पति अपने चरणों में जोड़ी रखता है। जिस जीव-इस्त्री ने सदा कायम रहने वाले प्रभु में प्यार डाला, नेहू पेदा किया, प्रभु पति ने उस का जीवन सुन्दर बना दिया। जब जीव-इस्त्री ने आपा-भाव दूर किया, तब उस ने प्रभु-पति को पा लिया और गुरु के शब्द में लिन हो गयी। प्रभु-प्रेम में खिची हुई सूचि जीव-इस्त्री गुरु के शब्द के रस्ते सुन्दर जीवन वाली बन जाती है, उस के हिर्दय में प्रभु-चरणों की प्रीत टिकी रहती है। गुरू नानक जी कहते हैं, हे नानक! इस तरह की सूचिजी जीव-इस्त्री को प्रभु-पति ने खुद ही अपने साथ मिला लिया है, सदा कायम रहने वाले शाह ने उस का जीवन सवार दिया है ॥੧॥ हे गुण-हिन् जिन्दे ! प्रभु-पति को अपने अंग-संग बस्ता देखा कर। हे मरी हुए जिन्दे! जो गुरु के सनमुख हो कर प्रभु-पति का सिमरन करता है उस को प्रभु पूरी तरह वियापक दिखता है। प्यारा प्रभु पूरी तरह वियापक दिखता है, तू उस को हाजर-नाजर देख और समझ की हर युग में एक ही प्रभु है । जो जीव-इस्त्री बाल-भोलो मन वाली बन कर और आत्मक अडोलता में टिक कर प्रभु-पति को याद करती है, उस को वह सिरजनहार मिल जाता है। जिस ने हर-नाम का सुआद चख लिया है और गुरु के शब्द के रस्ते प्रभु की सिफत-सलाह करनी शुरु कर दी, वह सरोवर-प्रभु में हर वक़्त डूबा रहता है। गुरू नानक जी कहते हैं, हे नानक! वही जीव-इस्त्री प्रभु-पति को प्यारी लगती है जो हर वक़्त गुरु के शब्द के रस्ते उस के साथ जुडी रहती है ॥੨॥
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