सलोक मः ५ ॥ साजन तेरे चरन की होइ रहा सद धूरि ॥  नानक सरणि तुहारीआ पेखउ सदा हजूरि ॥१॥  मः ५ ॥  पतित पुनीत असंख होहि हरि चरणी मनु लाग ॥  अठसठि तीरथ नामु प्रभ जिसु नानक मसतकि भाग ॥२॥ 

हे सजन मैं सदा तेरे पेरों की खाक बना रहूँ, गुरू नानक जी अरदास करते हैं की मैं तेरी शरण पड़ा रहूँ और तुझे ही अपने अंग-संग देखूं ॥१॥ (विकारों में) गिरे हुए भी बेयंत जीव पवित्र हो जाते हैं अगर उनका मन प्रभु के चरणों में लग जाए, प्रभु का नाम ही अठासठ तीर्थ है, परन्तु, (गुरू नानक जी स्वयं को कहते हैं) हे नानक! (यह उसको मिलता है) जिस के माथे पर भाग्य (लिखें) हैं॥२॥

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