सोरठि महला ५ घरु १ तितुके ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ किसु हउ जाची किस आराधी जा सभु को कीता होसी ॥ जो जो दीसै वडा वडेरा सो सो खाकू रलसी ॥ निरभउ निरंकारु भव खंडनु सभि सुख नव निधि देसी ॥१॥ हरि जीउ तेरी दाती राजा ॥ माणसु बपुड़ा किआ सालाही किआ तिस का मुहताजा ॥ रहाउ ॥
राग सोरठि, घर १ में गुरु अर्जनदेव जी की तीन-तुकी बाणी। अकाल पुरख एक है और सतगुरु की कृपा द्वारा मिलता है। हे भाई! जब जिव परमात्मा का ही पैदा किया हुआ है, तो (उस करतार को छोड़ के) मैं और किस से कुछ माँगू? मैं और किस की आस रखता फिरूँ? जो भी कोई बड़ा या धनि मनुख दीखता है, हरेक ने (मर कर) मिटटी में मिल जाना है (एक परमात्मा ही सदा कायम रहने वाला दाता है) हे भाई! सारे सुख और जगत के सरे नौ खजाने वह निरंकार ही देने वाला है जिस को किसी का कोई डर नहीं, और, जो सब जीवों का जनम मरण नास करने वाला है।१। हे प्रभु जी! मैं तुम्हारी (दी हुई) दातों से रिजक पा सकता हूँ, मैं किसी बेचारे मनुख की बढाई क्यों करता फिरूँ? किसी मनुख का मोहताज क्यों हो?।रहाउ। हे भाई! जिस मनुख ने परमात्मा की भक्ति शुरू कर दी, जगत की हरेक चीज ही उस की बन जाती है, परमात्मा उस के अंदर (माया की) भूख दूर कर देता है। सुखदाते प्रभु ने उस को ऐसा (नाम-)धन दे दिया है जो(उसके पास कभी भी नहीं ख़तम होता। गुरु ने उस परमात्मा के चरणों में (जब) मिला दिया, तो आत्मिक अडोलता के कारण उस के अन्दर आनंद और सारे सुख आ बसते है।२।
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