ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ पाठु पड़िओ अरु बेदु बीचारिओ निवलि भुअंगम साधे ॥ पंच जना सिउ संगु न छुटकिओ अधिक अह्मबुधि बाधे ॥१॥ पिआरे इन बिधि मिलणु न जाई मै कीए करम अनेका ॥ हारि परिओ सुआमी कै दुआरै दीजै बुधि बिबेका ॥ रहाउ ॥ मोनि भइओ करपाती रहिओ नगन फिरिओ बन माही ॥ तट तीरथ सभ धरती भ्रमिओ दुबिधा छुटकै नाही ॥२॥
हे भाई! कोई मनुख वेद (आदिक धरम पुस्तक को) पड़ता है और विचारता है। कोई मनुख निवलीकरम करता है, कोई कुंडलनी नाडी रस्ते प्राण चडाता है। (परन्तु इन साधनों से कामादिक ) पांचो के साथ , साथ ख़तम नहीं हो सकता। (बलिक ) और अहंकार में (मनुख) बंध जाता है ।१। हे भाई! मेरे देखते हुए अनेकों ही लोग (निश्चित धार्मिक) कर्म करते हैं, परन्तु इन साधनों से परमात्मा के चरणों में जुड़ा नहीं जा सकता।हे भाई! मैं तो इन कर्मो का सहारा छोड़ कर मालिक परभू के दर पर आ गिरा हूँ (और विनती करता रहता हूँ हे प्रभु! मुझे भलाई और बुराई की) परख करने की अकल दो।रहाउ। हे भाई! कोई मनुख चुप साधे बैठा है, कोई कर-पाती बन बैठा है (बर्तन के स्थान पर अपने हाथ बरतता है), कोई जंगल में नगन घूमता है। कोई मनुख सारे तीर्थों का रटन कर रहा है, कोई सारी धरती का भ्रमण कर रहा है, (परन्तु इस तरह भी) मन की अस्थिर हालत ख़तम नहीं होती॥२॥
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