जिसु जल निधि कारणि तुम जगि आए सो अंम्रितु गुर पाही जीउ ॥ छोडहु वेसु भेख चतुराई दुबिधा इहु फलु नाही जीउ ॥१॥ मन रे थिरु रहु मतु कत जाही जीउ ॥ बाहरि ढूढत बहुतु दुखु पावहि घरि अंम्रितु घट माही जीउ ॥ रहाउ ॥ अवगुण छोडि गुणा कउ धावहु करि अवगुण पछुताही जीउ ॥ सर अपसर की सार न जाणहि फिरि फिरि कीच बुडाही जीउ ॥२॥
अर्थ: (हे भाई!) जिस अमृत के खजाने की खातिर तुम जगत में आए हो वह अमृत गुरु की ओर से मिलता है; पर धार्मिक भेस का पहरावा छोड़, मन की चालाकी भी छोड़ दे (बाहर की सूरति धर्मियों वाली और अंदर से दुनिया को ठगने वाली चालाकी) इस दुविधा भरी चाल में उलझे रह के ये अमृत फल की प्राप्ति नहीं हो सकती।1।हे मेरे मन! (अंदर ही प्रभु चरणों में) टिका रह, (देखना, नाम-अमृत की तलाश में) कहीं बाहर ना भटकते फिरना। अगर तू बाहर ढूँढने निकल पड़ा, तो बहुत दुख पाएगा। अटल आत्मिक जीवन देने वाला रस तेरे घर में ही है, हृदय में ही है। रहाउ।(हे भाई!) अवगुण छोड़ के गुण हासिल करने का प्रयत्न करो। अगर अवगुण ही करते रहोगे तो पछताना पड़ेगा। (हे मन!) तू बार-बार मोह के कीचड़ में डूब रहा है, तू अच्छे-बुरे की परख करनी नहीं जानता।2। (हे भाई!) अगर अंदर (मन में) लोभ की मैल है (और लोभ के अधीन हो के) कई ठगी के काम करते हो, तो बाहर (तीर्थ आदि पर) स्नान करने के क्या लाभ? अंदर की ऊँची अवस्था तभी बनेगी जब गुरु के बताए हुए रास्ते पर चल के सदा प्रभु का पवित्र नाम जपोगे।3। (हे मन!) लोभ त्याग, निंदा और झूठ त्याग। गुरु के वचन में चलने से ही सदा स्थिर रहने वाला अमृत-फल मिलेगा। गुरू नानक जी स्वयं को कहते हैं, हे दास नानक! (प्रभु दर पर अरदास कर और कह:हे हरि! जैसे तेरी रजा हो वैसे ही मुझे रख (पर ये मेहर कर कि गुरु के) शब्द में जुड़ के मैं तेरी महिमा करता रहूँ।4।9।
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