सोरठि महला ९ ॥ प्रीतम जानि लेहु मन माही ॥ अपने सुख सिउ ही जगु फांधिओ को काहू को नाही ॥१॥ रहाउ ॥ सुख मै आनि बहुतु मिलि बैठत रहत चहू दिसि घेरै ॥ बिपति परी सभ ही संगु छाडित कोऊ न आवत नेरै ॥१॥ घर की नारि बहुतु हितु जा सिउ सदा रहत संग लागी ॥ जब ही हंस तजी इह कांइआ प्रेत प्रेत करि भागी ॥२॥
हे मित्र! (अपने) मन में यह बात पक्की तरह समझ ले, (कि) सारा संसार अपने सुख से ही बंधा हुआ है। कोई भी किसी का (अंत तक का साथी नहीं) बनता।१।रहाउ। हे सखा! (जब मनुख)! सुख में (होता है, तब) कई यार दोस्त मिल के (उसके पास)बैठते हैं, और, (उस को) चारों तरफ से घेरें रखतें हैं। (परन्तु जब उस पर कोई) मुसीबत आती है, तब सारे ही साथ छोड़ जाते हैं, (फिर)कोई (उस के) पास नहीं आता।१। हे मित्र! घर की स्त्री (भी), जिस से बडा प्यार होता है, जो सदा (खसम के) साथ रहती है, जिस ही समय (पती की) जीवातमा इस शरीर को छोड़ देती है, (स्त्री उस से यह कह कर) परे हट जाती है कि यह मर चुका है ॥੨॥ (हे मित्र! दुनिया की) इस तरह की रीत बनी हुई है जिस से (मनुष्य ने) प्यार पाया हुआ है, परन्तु हे नानक जी! (कहो-) आखिर समय परमात्मा के बिना अन्य कोई भी (मनुष्य की) मदद नही कर सकता ॥३॥१२॥१३९॥
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