साध संगत जी अकबर भारत के 1 प्रसिद्ध शहंशाह थे और वह न्याय पूर्ण शिक्षाओं का सम्मान करते थे और जब वह पंजाब आए इस यात्रा में वह गुरु साहब से मिलना चाहते थे तो इस बात का संदेश लेकर बादशाह अकबर का एक सिपाही सतगुरु अमर दास जी महाराज जी के पास पहुंचा और जब वह वहां पहुंचा तो उसने वहां जाकर सतगुरु को फरमाया की शहंशाह के शहंशाह बादशाह अकबर आपसे मिलने आ रहे हैं तो इस खबर से सिख बहुत प्रसन्न हुए और उनमें से एक सिख बोला कि गुरु साहिब बादशाह अकबर आ रहे हैं उनके स्वागत के लिए हमें प्रबंध करना चाहिए तो यह सुनकर सतगुरु ने फरमाया कि अकबर उतना ही इंसान है जैसे दूसरे हैं गुरु का दरबार सबके लिए एक समान खुला है राजा और प्रजा हिंदू और मुसलमान अमीर और गरीब सभी एक समान है इसलिए अकबर का मेहमानों जैसा ही समान होना चाहिए कोई विशेष प्रबंध करने की कोई आवश्यकता नहीं है गुरु के लंगर में सभी को सादा भोजन परोसा जाता था यात्रियों और भिखारियों और अजनबीयों के साथ-साथ गुरु के अनुयायियों को भी वही भोजन परोसा जाता था साध संगत जी जो कुछ भी बचता था उसे जानवरों और पशु पक्षियों को दे दिया जाता था ताकि कुछ भी बर्बाद ना हो क्योंकि सतगुरु ने उपदेश दिया था कि जो भी गुरु घर आए कोई भी जहां से भूखा ना जाए उनको लंगर करवाने का विशेष प्रबंध होना चाहिए और लंगर में सादा भोजन परोसा जाना चाहिए साध संगत जी राजा अकबर हरिपुर के शहंशाह के साथ गोइंदवाल पहुंचे जहां गुरु साहिब रहते थे तो सिखों ने उनका स्वागत किया और राजा अकबर को गुरु साहिब का रहने का स्थान दिखाया गया तो राजा अकबर और हरिपुर के बादशाह ने संगत में बैठकर भोजन किया वह आम लोगों की तरह पंगत में बैठे और सिखों ने उनको भोजन परोसा तो उन्होंने लंगर का आनंद लिया तो अकबर को यह सब देख कर बहुत अच्छा लगा वह बहुत प्रसन्न हुआ गुरु साहिब से मिलने से पहले बादशाह अकबर ने पंगत में बैठकर एक साधारण व्यक्ति की तरह भोजन किया तो उसके पश्चात वह गुरु साहिब जी से मिले और उनके रूहानी चेहरे को देखकर उनसे बहुत ही प्रभावित हुए तो उसमे जिज्ञासा से एक प्रशन गुरु साहिब से पूछा कि मैं शहंशाह हूं सभी नौकर चाकर मेरे आगे पीछे चलते हैं अच्छे से अच्छे रसोइए मेरे महल में काम करते हैं जो अच्छा अच्छा पकवान बनाते हैं मैं आपकी आधी उम्र का भी नहीं हूं लेकिन फिर भी मेरे चेहरे पर उतना नूर नहीं है जितना कि आपके चेहरे पर है इसका क्या राज है तो यह सुनकर सतगुरु ने फरमाया कि मैं भी वही भोजन करता हूं जो यहां लंगर में परोसा जाता है दिया जाता है यह नूर अल्लाह की मीठी याद है और कुछ नहीं है तो जाने से पहले अकबर ने गुरु साहब से कहा कि मैं सतगुरु नानक के धर्म से प्रभावित हूं और उनके संदेश और उनकी शिक्षाओं का आदर करता हूं और मैं इस बात से प्रभावित होकर अपनी तरफ से एक बहुत बड़ी जमीन आपको सेवा में देना चाहता हूं जहां पर लोगों को लंगर परोसा जाए उनकी सेवा की जाए तो सतगुरु ने फरमाया प्रिय अकबर मुझे यह बात जानकर खुशी हुई कि आपको बाबा नानक का मार्ग अच्छा लगता है और मैं इस बात के लिए आपका धन्यवाद भी करता हूं कि आप लंगर के लिए स्थान देना चाहते हैं परंतु मुझे माफ करें मैं आपसे लंगर का स्थान नहीं ले सकता क्योंकि बाबा नानक कहते हैं कि लंगर का प्रबंध सभी की कमाई के एक भाग से हो भाव लंगर के प्रबंध में सभी का पैसा लगा हो फिर चाहे वह अमीर हो या फिर गरीब हो लंगर लोगों की दी हुई श्रद्धा की कमाई से चलना चाहिए ना की किसी राजा के दिए हुए दान से, गुरु के लंगर में प्रत्येक व्यक्ति उतना ही देता है जितना वे दे सकता है और जितना उसे चाहिए भी उतना ही लेता है राजा और भिखारी में कोई भी फर्क नहीं है सभी एक साथ बैठते हैं लंगर ग्रहण करते हैं प्यार से परोसा सादा भोजन खाते है तो अकबर को सतगुरु के विचार बहुत पसंद आए लेकिन बादशाह अकबर जो कहते थे वह अपने विचार को किसी न किसी तरह पूरा करते थे तो बादशाह अकबर ने बाबा नानक के घर का विस्तार करने के लिए मन बना लिया था तो उन्होंने सत गुरु अमर दास जी की पुत्री माई भानी की शादी में उपहार के तौर पर भेंट की, साध संगत जी तीसरी पातशाही सतगुरु अमर दास जी महाराज जी ने एक बावली का निर्माण करने के लिए जमीन खरीदी, बावली कुएं के समान होती है जिसमें सीढ़ियां होती है तो गड्ढा काफी गहरा खोदा गया लेकिन एक बहुत बड़े पत्थर ने संपूर्ण कार्य को रोक दिया तो यह देखकर एक सिख ने कहा कि है गुरु जी जरूर इस पत्थर के आगे पानी निकलेगा अब आगे हमें खतरा है इसे आगे हम नहीं खोद पाएंगे तो ये सुनकर सतगुरु ने फरमाया कि खतरा तो है लेकिन फिर भी यह कार्य किसी ना किसी को तो करना पड़ेगा और जो भी इस कार्य को करेगा उसे सावधान होना पड़ेगा क्योंकि वह पानी में डूब भी सकता है यह सुनकर सभी पीछे हट गए परंतु सतगुरु का 1 सिख जिसका नाम मानिकचंद था और वह भैरों वाली का था और उसने सतगुरु को कहा कि गुरु जी मैं इस कार्य को करूंगा और वह भावली में गया और उसने बड़े पत्थर को हटा दिया और पानी बहुत तेजी से निकला पूरी बावली पानी से भर गई और भाई मानिकचंद डूब गए तो गुरुजी के सिख के मृतक शरीर को बाहर निकाला गया और गुरुजी के सामने ले जाया गया तो भाई माणक चंद जी को सतगुरु की तरफ से आशीर्वाद मिला और उनके शरीर में फिर से जान आ गई तो इस घटना के बाद लोग माणकचंद जी को मर्जीवना के नाम से जानने लगे जिसका मतलब होता है मर कर दोबारा जीवन पाने वाला ।
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By Sant Vachan
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